सोमवार, 7 अप्रैल 2014

मैंने सीखा.

मैंने सीखा...
कुछ छोटी छोटी बातें अक्सर छूट जाती हैं जिंदगी में. जिनका जीवन पर बहुत ही गहरा असर होता है. ऐसी ही एक बात मैंने अपने बुजुर्गों से सीखा है और सच माने इसका मुझे बहुत ही लाभ हुआ है. शायद आप भी इसका लाभ पाएं... वंचित न रह जाएं, इसीलिए साझा कर रहा हूँ...

मेरे बुजुर्गं ने सिखाया है कि साधारणतया बिना बुलाए कहीं भी जाना नहीं चाहिए. यह जिंदगी का पहला उसूल होना चाहिए. जैसे किसी के घर खुशी का जलसा मनाया जा रहा है और वह आपका बहुत ही अजीज भी है. लेकिन किसी कारण से आपको वहाँ का न्यौता नहीं है.. तो वहाँ नहीं जाना चाहिए. आप सोच सकते हैं कि बेचारे भले दोस्त, रिश्तेदार से भूल – चूक हो गई होगी. यदि आपको इतना विश्वास है, तो ठीक है हो आईए. लेकिन खुदा न खास्ता नहीं बुलाने का कोई विशेष कारण हो तो... आपकी किरकिरी हो सकती है. दोस्त के लिए आपको वहाँ यह सहना पड़ेगा . उसके पास तो पूरा इंतजाम है कहने का कि यार इसी डर से मैंने तुम्हें बुलाया भी नहीँ था. क्या करें तुमने आना उचित समझा और ऐसा हो गया... इसमें मेरा क्या दोष.. लेकिन आप तो किरकिरी को न ही भूल पाओगे और न ही अपने दोस्त को माफ कर पाओगे. जबकि दोस्त की कोई गलती है ही नहीं.. सारी आपकी अपनी सोच के कारण घटी है.

लेकिन इसके भी अपवाद हैं. ऐसी जगहें भी हैं जहाँ बुलाने पर भी नहीं जाना चाहिए. आप  कहेंगे क्यो भई ? तो सुनिए.. यदि कहीं मद्यपान का प्रोग्राम बन रहा हो कि कोई फ्री फँड पार्टी दे रहा हो या फिर जुएँ का मजमा लग रहा हो या फिर कोई कुकर्म करने की प्लानिंग हो रही हो - तो अच्छा है कि न्यौते के बाद भी वहां न जाएँ. इसमें शामिल होने से कुछ मिलना तो है नहीं पर लुटेगा जरूर. हो सकता है पुलिस के चक्कर में पड़ जाएं या फिर आपकी इज्जत ही उछल जाए.. नशे के दौर में कौन क्या कर बैठेगा – अभी साफ हालत में कहना मुश्किल ही होता है.

दूसरा अपवाद ऐसा भी है कि कुछेक जगहों पर बिना बुलाए ही जाना होता है. वहां न्यौते का इंतजार नहीं करना चाहिए. जैसे किसी के घर कोई बहुत बीमार है और सेवादार कोई नहीं है. तो ऐसी हालातों में सारी दुश्मनियाँ भूल कर  उसकी सेवा में जाना चाहिए. हो सकता है दुश्मनी की वजह से आपको वहां बेइज्जत होना पड़े .. इसके बावजूद भी आपको वहां जाना चाहिए, क्यों कि  सेवा मानवता का पहला धर्म है. रिश्ते, दोस्त और बाकी सब बाद में आते हैं. या फिर कही मातम मन रहा हो तो भागीदारी वहाँ जाकर जरूर निभानी चाहिए. इसके लिए सोचने की आवश्यकता नहीं होती.

आप किसी के घर मुंडन, शादी या गृहप्रवेश में न जा पाएं, तो एक बार पूछ लिया जाएगा. बहुत ही नजदीक न होने पर कोई बुरा भी नहीं मानेगा. किसी के दुख में शामिल न होने पर कोई सवालात तो नहीं करेगा, पर मन ही मन आपके प्रति एक विचार स्थापित कर लेगा, कि यह व्यक्ति जरूरत पर साथ नहीं देगा. आपको खबर भी नहीं पड़ेगी कि आपका स्तर नीचे आँका गया है. भले ही सुख बाँटने ना जाओ पर गम-दुख बाँटने में कभी पीछे नहीं रहना चाहिए

ये है तीन नियमों का एक सेट.- जो मैंने अपने बुजुर्गों से पाया है. अब आप देखें समझें और सुझाएं आपकी क्या राय है.

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एम.आर.अयंगर.

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