खुली हवा में...............
हाल ही मे किसी ने सुप्रीम कोर्ट
में अर्जी दी थी. उनका कहना था कि दीवारों पर भगवानों की तस्वीरें लगाने के बावजूद
भी जनता दीवाल खराब कर रही है . इसलिए लोगों को अपने घर की दीवारों पर ऐसे तस्वीर
लगाने से रोका जाए. और कि जन साधारण को खुले में मूत्रत्याग करने से, आदेश द्वारा
रोका जाए. न्यायालय ने दोनों ही संदर्भों में नकारते हुए कहा कि किसी को उनके अपने
घर की दीवारों पर भगवान की तस्वीर न लगाने के लिए कोर्ट कह नहीं सकता और यह भी संभव
नहीं है कि जनता से कहे कि घर के बाहर अपनी पेंट के जिप पर ताला लगाकर रखे.
सही है. एक प्राकृतिक जरूरत के लिए किसी
को मना कैसे किया जा सकता है. हाँ उचित सुविधा मुहैया कराने पर भी कोई इनका प्रयोग
न कर वातावरण को नुकसान पहुँचाता है तो उन पर कार्रवाई की जा सकती है.
आज से ठीक पचास साल पहले पिताजी ने कहा
था – चलो बेटा आज तुम्हें अपना नया घर दिखा लाता हूँ. स्कूल की परीक्षाएँ पूरी हो
चुकी थीं – कोई खास काम तो होता न था, सो हाँ में हाँ मिलाकर पिताजी के साथ साईकल की
पिछली सीट ( कैरियर) पर बैठकर निकल पड़े.
जिस मकान में हम रहते थे, वह स्टेशन
के पास था, बाजार नजदीक था. पोस्ट ऑफिस और स्कूल भी नजदीक थे. लेकिन अब हमें वहां
से दूर जाना पड़ रहा था क्योंकि दादा-दादी का हमारे यहाँ स्थिर ठिकाना जो होने
वाला था. करीब 20 मिनट के साईकल सवारी के बाद हम किसी मुहल्ले में पहुँचे.. लगा मोहल्ला तो पुराना है, पर उसमें कुछ नए और बड़े मकान बनाए गए हैं और इसी बड़े
मकान के लिए हमें अपने हाल के मकान को, सारी सुविधाओँ के साथ त्याग कर आना पड़ रहा
था.
मुरम की सड़कें थी. पास में खेलने
का मैदान भी था. घर नया तो लग ही रहा था. घर में एक बैठक, बरामदा, दो बेड रूम, किचन
- बाथरूम, किचन-स्टोर तो थे ही, साथ में एक कोयला स्टोर भी था. किंतु हमारे पुराने
मकान से विशेष फर्क जो था वह था - आधुनिक शौचालय. इसकी खास बात यह थी, कि किसी
सफाई वाले को रोज-रोज की ड्यूटी नहीं करनी पड़ेगी. एक दिन सफाई कमचारी के न आने पर होने वाली असुविधा को आज सोचने का मन भी नहीं करता. कितने दुर्दिन थे वे,. यहाँ नए आधुनिक शौचालय में, र्शौच के बाद पानी डालने से ही
सारा साफ हो जाया करेगा. हम दोंनों ने पूरे मकान में बार-बार घूम-घूम कर देखा और
फिर लौट कर शौचालय तक आ जाते. मुझे यह बहुत भाया.
घर पहुंचते ही माँ ने पूछा बेटा
नया मकान कैसा लगा.. मैंने बताया वह तो बड़ा और बहुत अच्छा है. इस पर फिर सवाल हुआ,
सबसे बढ़िया क्या है... मैंने बताया – शौचालय. बस, सब के सब जोर जोर से ठहाके
मारकर हँसने लगे. मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें ऐसे हँसने की क्या बात है. पर
सारे जी भर कर हँसते रहे.
मेरे मन को यह बात लग गई. मुझे
आभास था कि अभी के मकान में शौच के समय कितनी घिन होती थी. दरवाजा खोलते ही बदबू
की बहार होती थी. नए मकान के शौचालय में न कोई गंध थी नहीं कोई मुश्किल. अंदर पानी
के लिए नल भी लगा था, पर क्या करे कोई इसे समझने को तैयार ही नहीं था.
मैं खेलों के दौरान, मंडी –
मार्केट वाले दिन लोगों को खुले में पेशाब करते देखता था .. कितना गंदा लगता था. लेकिन इसका कोई उपाय
भी तो नहीं था तब. खेलों के स्टेडियम में आखरी कतार में, सिनेमा हालों में एक तरफ
की दीवाल के पास बैठने को कोई तैयार ही
नहीं होता था क्योंकि वहां पर पेशाब की बदबू आती थी. खाली मकान की दीवार, कोई नीरव
कोना, किसी गली के बाहर का मैदान, किन्ही दो मकानों को बीच की गली ये सब मुसीबत के
समय मूत्र-त्याग के काम आ जाया करते थे. तब मैं सोचता था कि ऐसे शहरों में,
जहां दूरिया इतनी हैं कि कोई व्यक्ति पेशाब करने वापस घर नहीं जा सकता, वहां सरकार मूत्रालय या कहें पेशाब-घर क्यों
नहीं बनवाती. मुझे खुद बहुत पानी पीने की आदत है, सो त्याग भी करना होगा, पर स्थान
की तकलीफ होती थी. खुले में सबके सामने ( भले मुँह फेरकर) करना बुरा भी लगता था.
पर कई बार तो मजबूरी हो जाती थी. इसलिए इसी मजबूरी में मेरी हालत ऐसी हो गई कि
किसी भी नई जगह जाने पर मेरी नजर खोजती थी कि कहीं सार्वजनिक मूत्रालय बने हैं या
फिर कोई सूनसान जगह जहाँ आराम से पेशाब किया जा सकता है.खासकर उन दिनों जब टेस्ट और इंटर्व्यू के लिए शहर शहर घूमना पड़ता था . नए शहर में हर जगह सुविधा कहाँ से मिले. बहुत तकलीफ होती थी कोई वीरान कोना ढूँढने में.
कई साल बाद जब मैंने सुलभ शौचालय
देखा तो जान में जान आई. भले ही शुरु में वे 15 पैसे शुल्क लिया
करते थे, फिर भी यह खुले आम पेशाब करने और
वातावरण दूषित करने से कहीं अच्छा था. सोचा था कि अब सरकार को रास्ता मिल गया है
और ऐसी व्यवस्था हर जगह की जाएगी .. सुलभ शौचालय संख्या में तो खैर बढ़े हैं, पर
जरूरत के अनुसार अब भी बहुत ही कम हैं. किस कारण से इनके प्रयोग को बढ़ावा नहीं
मिल रहा है, इसकी जानकारी किसी ने भी शायद नहीं ली... मैंने भी नहीं.
मेरी सोच में इस लत को दूर भगाने
के लिए प्रस्तुतः सुलभ शौचालय हमारी मदद कर सकता है. सरकार चाहे तो इस संस्था को
अनुदान दे या फिर ऐसे और संस्थान खुलवाए ताकि उनमें भी आपसी प्रतिस्पर्धा हो .
लेकिन ऐसा क्यों नहीं किया गया इसकी तो मुझे चिंता है. मुझसे इसका प्रबंधन नहीं हो
पाएगा यह जानकर मैंने हाथ नहीं बढ़ाया. क्योंकि हमारे देश में नियम है जो बोले सो
कुंडा खोले... इसलिए बात बढ़ाता तो मेरे सर ही आनी थी.
कुछ समय पहले देखा कि कुछ शहरों
में इनकी सुविधा में विस्तार हुआ है.दिल्ली , में कुछ हद तक इनकी सुविधा है. इस पर
मेरे कुछ सुझाव हैं ---
- प्रत्येक रेल्वे स्टेशन पर इसकी भरमार सुविधा हो.. पुरुष
और स्त्रियों के लिए अलग-अलग. यह प्लेटफार्म के सुदूर कोने में न होकर ऐसी
जगह हों जहां जन साधारण देख सके और इस्तेमाल कर सके.
- मंदिरों, सभागारों, होटलों, स्कूलों - कालेजों,
सभास्थलों व इत्यादि सनसंपर्क स्थलों पर इनकी सुविधा बहुतायत में उपलब्ध कराई
जाए.
- बाजारों में, मॉल में, हाट में, होटलों में सामान्य जन
साधारण के लिए या कम से कम अपने ग्राहकों के लिए इनकी सुविधा निर्बाध उपलब्ध
की जाए.
- पेट्रोल पंपों पर, बस स्टैंडों पर, बस दिपो में,
सार्वजनिक स्थलों पर जन साधारण के
लिए इनकी सुविधा उपलब्ध कराई जाए.
- सरकारी, अर्धसरकारी, प्राईवेट व अन्य किसी भी कार्यालय
में इनकी सुविधा उपलब्ध हो और सेरे आगंतुकों के लिए यह खुले हों. राज्यमार्ग
व राष्ट्रीय राजमार्गों पर जगह जगह इनकी सुविधा उपलब्ध कराई जाए की लंबी दूरी
के यात्री इनका उपयोग करे और वातावरण को दूषित होने से बचाएँ.
- अक्सर देखा गया है कि कार्यालयों में, अस्पतालों में,
होटलों मे, क्लबों में व अन्य स्थलों पर जहां जन साधारण का आना जाना लगा रहता
है - शौचालय सामने लॉबी में नल होकर अंदर की तरफ होते हैं, जो जन साधारण के
लिए उपलब्ध नहीं होते. इस पर किसी महकमे को ध्यान देना चाहिए.
जरा सोचिए.. इतनी जगह जहाँ
सामान्यतः शौचालय होने चाहिए ... शायद होते भी हैं, पर जन साधारण के लिए उपलब्ध
नही होते. यदि उनकी सुविधा जन साधारण तक पहुँचा दी जाए तो कितनी समस्या हल हो
जाएगी. हाँ मैं मानता हूँ कि यह समस्या का पूरा समाधान नहीं है, पर कुछ कम भी नहीं
है.
इसके साथ साथ जो दूसरी समस्याएँ
उभरने वाली हैं उन का भी जिक्र कर लिया जाए.
–
सर्वप्रथम जन साधारण के दूसरे से
प्राप्त सुविधा का सही इस्तेमाल करना होगा. यानि प्रयोग के बाद फ्लश करना, दरवाजा
ठीक से बंद करना इन पर ध्यान देना होगा. जो लोग ऐसा करने से बचते हैं उनपर दंडनीय
कार्रवाई करने की सुविधाएं व नियम बनाए
जाएं.
साफ सफाई की जिम्मेदारी तो इलाके
के, कार्यालय के या फिर मॉल के प्रबंधन को लेना होगा. यह इसमें सबसे बड़ी
जिम्मेदारी होगी. वहीं अनचाहे मनचलों को शौचालय की दीवारों को गंदा करने से बचना
होगा वरना कानूनी प्रावधान के तहत शायद जेल की हवा का भी इंतजाम करना होगा.
रखरखाव के लिए कभी भी कोई भी यूनिट
बंद करना पड़ सकता है इसलिए इसकी अतिरिक्त सुविधा पहले से ही बनाई जानी चाहिए.
कोशिश की जाए कि सुविधा जन साधारण को सर्वदा उपलब्ध हो.
हो सकता है कि बाह्य उपयोगकर्ताओं से कोई शुल्क भी लिया जाए --- उस पर भी
सुविधा उपलब्ध कराने से पर्यावरण में बहुत सुधार हो जाएगा. सरकार को चाहिए कि
सुविधा शुल्क के साथ या बिना – पर सुविधा उपलब्ध जरूर कराने पर जोर दे.
एम.आर.अयंगर.
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