सोमवार, 9 नवंबर 2015

                   अजीब मोड़

जीवन के इस मोड़ पर एक बार फिर अनुभव हुआ कि बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं. उनके कथनों में जीवन के अनुभवों का निचोड़ और सार होता है. हम जब तक जीवन के उस मोड़ तक नहीं पहुँचते, हम उनके कथनों की सत्यता को जान नहीं पाते, परखने की बात तो और रही. मौत के बाद तो लोग लाश के सामने उनके तारीफों के पुल बाँध देते हैं भले ही जीवन भर वह लुच्चा लफंगा रहा होगा या उसे ऐसा कहा गया होगा. हो सकता है कि उसके जीवन काल में उसकी कोई औकात ही न रही हो. एक हिंदी सिनेमा छोटी सी बात में भी इसी मुद्दे पर ए गाना भी था – न जाने क्यों होता है यूँ जिंदगी के साथ, किसीके जाने के बाद, करे फिर उसकी याद ,छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यों

बात साफ है कि जब व्यक्ति सामने होता है तो उसकी खूबियाँ नजर-अंदाज हो जाती हैं या की जाती है किंतु उसके जाते ही उसकी महत्ता का आभास हो जाता है. ऐसा ही कुछ अब मेरे साथ हो रहा है - हो चुका है.


जो साथी अब उच्च पदासीन हैं वो अब मुझे याद कर रहे हैं कि मैं जाते - जाते सहकर्मियों से अपने अनुभवों से अवगत करा जाऊँ. मुझे इसी बात पर संदेह होता है कि कभी किसी ने ऐसा आभास होने ही नहीं दिया कि मेरे अनुभवों की भी किसी को आवश्यकता पड़ सकती है. उनमें निहित सार भी किसी के काम का हो सकता है. वैसे भी 30-32 साल के अनुभवों से सहकर्मियों को सही तरह से अवगत कराने के लिए समय दिनों में नहीं महीनों मे लग जाएगा.

2-3 दिनों में साझा करना महज औपचारिकता के सिवा कुछ नहीं होगा. और मुझे औपचारिकताओं पर विश्वास नहीं है.

सोमवार, 24 अगस्त 2015

भाषाओं में बाँसुरी वादन

 आठ भाषाओं में बाँसुरी वादन (नवभारत-रायपुर की खबर)

वाह रे नवभारत (नभा) तेरा भी कोई जवाब नहीं.

सदियों से भाषा से अछूती रही संगीत (म्यूजिक) को तूने भाषा दे ही दिया

और सेवक राम जी आप भी मूक बने रह गए. 

कहा गया है कि आप आठ भाषाओं में बाँसुरी बजाते हो.

यदि मेरी अकल ठिकाने है तो बाँसुरी वादन की कोई भाषा ही नहीं होती –

आठ की तो छोड़ ही दीजिए.

यदि पत्रकारिता का ऐसा ही हाल रहा –

तो वे दिन दूर नहीं जब नवभारत हिंदी में तबला बजाने की प्रतियोगिता करवाएगा.

सुधर जाइए और सुधार लीजिए जनाब.

अभी पूरी तरह बिगड़ा नहीं है,

लेकिन हाँ बरबादी की तरफ अग्रसर तो हो ही गया है.

यही हाल रहा तो अखबार के बंद होने में ज्यादा देर बाकी नहीं है.
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एम. आर. अयंगर


शनिवार, 1 अगस्त 2015

संसद बंद है.

संसद बंद है.
हमारे देश के कर्णधार जब चुनाव लड़चते हैं तो कोई रोक टोक नहीं होता. व्यवहार से वे जमीन पर होते हैं और वादों से सातवें आसमान पर. बाकी बीच का इन दोनों के बीच ही रहता है. खर्च बेइंतहा करते हैं करोड़ों की गिनती भी भूली जाती है भले चुनाव आयोग को लाखों का ही हिसाब मिलता है. 
खास बात यह है कि सारे के सारे नेता ऐसे ही हैं इसलिए कोई किसी पर लाँछन नहीं लगाता. जो लगाता है वह नौ-सिखिया होने का प्रमाण दे देता है. सब को अपनी अपनी पार्टी का समर्थन है. किसी किसी को पार्टी से आर्थिक सहायता भी मिलती है. इसलिए और शायद इसीलिए वे जीते या हारें पार्टी के साथ फेवीक्विक लगाकर चिपके रहते हैं. हो सकता है अगले चुनाव में फिर पार्टी का सहारा चाहिए. बात समझ में भी बखूबी आती है.

चुनाव लड़ने तक की बात तो ठीक है. पार्टी के मनोनीत हैं तो पार्टी के साथ हैं. सारे चुने व हारे नेताओं का मकसद एक ही होता है (भले कागजों पर ही हो) – देश की सेवा करना. कायदे से चुने जाने के बाद उन्हें पार्टी से अलग देश की सेवा में लग जाना चाहिए, किंतु ऐसे तो कभी भी नहीं होता. वे जीतने के बाद भी पार्टी के मनोरथ को बढ़ावा देने में जुटे रहते हैं. हर पार्टी के हर नेता का यही रवैया रहा है और आज भी ऐसा ही है.

यदि सभी विजेताओं का मकसद देश की सेवा ही था तो वे आपस में बैठकर सेवाओं की बात भले माहौल में करते क्यों नहीं दीखते ?  प्रतिपक्ष का काम रचनात्मक विरोध है न कि सरकार के हर बात का विरोध. विरोध नहीं बल्कि कहना चाहिए कि यदि प्रस्ताव में किसी तरह की खामी हो तो उसके निराकरण के रास्ता सुझाने का काम  प्रतिपक्ष का होता है. या फिर कोई नया अच्छा प्रस्ताव लाना भी विपक्ष का काम हो सकता है. लेकिन यहाँ तो प्रस्ताव की बात पर विपक्ष तो अविश्वास प्रस्ताव ही लाती है. और विरोध के नाम पर सरकार के हर प्रस्ताव का विरोध करती है.

आज भाजपा के नेता, जिनकी सरकार है, कहते नहीं थक रही है कि काँग्रेस संसद चलाने में बाधाएं उत्पन्न कर रही है. रक्षा के मसले अटके हुए हैं वहाँ गुरुदासपुर में आतंकी हमला हुआ है लेकॉन काँग्रेस को देश की कोई चिंता नहीं है.

थोड़ा पीछे जाईए तो नजर आएगा कि पिछले दशकों से दूसरी पार्टियों ने यही किया है. काँग्रेस को विपक्ष का बहुत ही कम अनुभव है. जो उनने विपक्ष को करते देखा, जिन पर उनने फब्तियाँ कसीं, वही काम वे आज खुद कर रहे हैं. विपक्ष से सीखा, किंतु जो उनको नागवार था वही कर रहे हैं. विपक्ष पर लाँछन था कि वे संसद का समय नष्ट कर रहे हैं. देश की जनता के (करदाताओं) पैसों का दुरुपयोग हो रहा है. फिर भी आज उन्हें लेश मात्र भी दुख-रंज नहीं है कि वे भी वही कर रहे हैं और पक्षकार भाजपा उन पर वैसा ही आरोपण कर रही है जैसा वे पक्ष में रहकर प्रतिपक्ष भाजपा पर करते थे.  सही मायने में कुछ नहीं केवल पात्राभिनय बदला है.

संसद चलना चाहिए. इसमें दो मत तो नहीं हो सकते. पर चल नहीं रही है. भाजपा कहती है कि कांग्रेस चलने नहीं दे रही है. कांग्रेस कहती है कि जब तक स्वराज व विजयराजे के इस्तीफे नहीं आते संसद नहीं चलने देंगे. जिरह के लिए ही सही माना काँग्रेस गलत है. तो फिर संसद चलाना उतना ही जरूरी समझती है तो भाजपा इन दोनों का इस्तीफा क्यों नहीं पेश करती. संसद चलाने की जिम्मेदारी सरकार पक्ष की ज्यादा और विपक्ष की कम आँकी जा सकती है क्योंकि सरकार को ही प्रस्ताव रखना और पास कराना होता है. मुद्दों के मद्देनजर संसद चलाना, इनके इस्तीफे बचाने से ज्यादा अहम काम नहीं है, इसलिए वे भी कोई पहल नहीं कर रहे हैं. सब जानते हैं कि दूसरों पर दोष मढ़ देना आज के युग की सर्वोत्तम राजनीति है. अन्यथा इनके इस्तीफे सदन में पेश कर संसद चलाया जा सकता था. पेशी होती रहे , जब बात साफ हो जाए तो इस्तीफे मंजूर या नामंजूर हो सकते थे. लेकिन नहीं, भाजपा ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि यह अब नाक की लड़ाई बन चुकी है. बात पाक साफ है कि किसी को देश की सेवा नहीं करनी है. पहले पार्टी की सेवा जरूरी है. यह बात और है कि पार्टी की सेवा के साथ ही स्वयंसेवा भी जुड़ी हुई है. राष्ट्र तो बाद में आता है.

यह भाजपा पर इस्तीफों के कारण आए राजनीतिक संकट से ध्यान बँटाने व उबरने का एख सार्थक प्रयास सा लगने लगा है.

क्यों ये देश के कर्णधार चुनाव जीतने के बाद अपनी पार्टी के लबादों से बाहर आकर एक जुट होकर देश की खातिर काम नहीं कर पाते?

इस दूषित मानसिकता का कोई समाधान निकालना होगा, तभी हमारा देश प्रगति पथ पर तेजी से अग्रसर हो सकेगा.
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अयंगर.

सोमवार, 29 जून 2015

प्रभू की सेवा और मेवा.


प्रभु की सेवा और मेवा.
इसी साल रेलवे बजट में प्रभु ने कहा था कि हम किसी प्रकार से किराया में वृद्धि नहीं करेंगे बल्कि इस वर्ष हम रेल यात्रियों की सुविधाओं की तरफ ध्यान देंगे. पटरियों का संवर्धन, रेल-गत सुविधाओं में उन्नति व सुधार, नए रेल एंजिन व बोगियाँ, बायो – टॉयलेट की सुविधाएं. अच्छे खान पान की व्यवस्था, सामान्य व महिला यात्रियों की सुरक्षा इत्यादि पर जोर देकर ध्यान देने की बात को दोहरा कर कहा था. सही बात थी कि रेल बडट में यात्री भाढ़ा नहीं बढ़ाया गया.

नई दिल्ली स्टेशन का एसी यात्रियों का प्रतीक्षालय-1

किंतु समय के चलते सरकार ने परोक्ष रूप  से ऐसे कदम उठाए कि एक के बाद एक कई बातें बेतुकी साबित हो गई.

प्लेटफार्म टिकट 5 से 10 रु का हो गया... कारण बताया गया कि स्टेशनों पर भीड़ कम करनी है. कुछ हुआ...? केवल गरीब की जेब खाली हो गई. अच्छा हो कि इसके लिए भी एक मासिक टिकट का विकल्प दे दिया जाए.



सर्विस टेक्स बढ़ा दिए – टिकट की कीमतें तो अपने आप बढ़ गईं. साथ ही साथ बाजार की हर वस्तु मँहगी हो गई. यात्रियों के खर्चे तो बहुत बढ़ गए. 

नई दिल्ली स्टेशन का एसी यात्रियों का प्रतीक्षालय-2
गाड़ियाँ शायद बढ़ी हों, पर वेटिंग रूम की हालत तो बदतर हो गई है. पहले, दूसरे दर्जे के लिए अलग व प्रथम श्रेणी के लिए अलग प्रतीक्षा कक्ष होते थे.  फिर एसी आया तो एसी को प्रथम श्रेणी से जोड़ा गया. अब समय बदला है और एसी व एसी प्रथम में सफर करने वाले यात्री बेइंतहा बढ़े हैं. साफ जाहिर है कि रेलवे की कमई में भी बढ़ोत्तरी हुई है. लेकिन आज भी एसी के हर श्रेणी के लिए एक ही प्रतीक्षालय है. पहले जहाँ बैठने व सोने की सुविधा होती थी अब वहाँ केवल प्लास्टिक या स्टील की

कुर्सियाँ होती हैं. उनकी तादाद भी इतनी कम होती है कि उनसे करीब दो या तीन गुना यात्री तो जमीन पर बैठे पसरे मिल जाएंगे. क्या रेलवे को यह उचित नहीं लगता कि यात्रियों की तादाद के हिसाब से प्रतीक्षालय बनाए जाएं. या फिर प्रतीक्षालय – सुविधाओं के अंतर्गत नहीं आता. अब लगता है अच्किछा हो कि रेलवे प्रतीक्षालय के भी आरक्षण करवा लिया करे. लोगों को सुविधा मिलेगी और रेलवे की भी आमदनी बढ़ेगी.

रही सुधार की बात तो गाड़ियों में एसी अटेंडेंट व कोट अटेंडेंट को ठेके पर रख लिया गया. सेवाओं में उन्नति नहीं अवनति हुई है. पहले रेलवे कर्मचारी उनके अफसरों से शिकायत को डरता था अब तो ठेकेदार किसी की नहीं सुनते, बल्कि जवाब भी बेढंगे दिए जाते हैं. एक बार एक अटेंडेंट से विनती की कि भई बहुत थका हूँ शायद नींद न खुले सुबह स्टेशन पर जगा देना. उसने तो अनसुनी कर दी. फिर टीटी ई से बात की तो बताया गया कि साहब आप उनसे कुछ मत कहिएगा .. कभी कभी वे बेत़ृकार की बात कह देंगे तो आपको बुरा लग जाएगा. रेलवे स्टाफ से कहिए तो वह काम कर देगा. अंततः टी टी ई ने सुबह जगाने का काम किया.
नई दिल्ली स्टेशन का एसी यात्रियों का प्रतीक्षालय-3
नई दिल्ली स्टेशन का एसी यात्रियों का प्रतीक्षालय-4
बेड रोल के पैकेट में दो चादर व एक फेस टॉवेल होता है. अक्सर अटेंडेंट बिना टॉवेल के चादर दे जाता है. केवल माँगने पर ही टॉवेल दी जाती है. कहते हैं कि पेसेंजर टॉवेल ले जाते हैं. यदि पेसेंजर के उतरते वक्त अटेंडेंट चादर – टावेल माँगे, तो ऐसे हादसे बहुत ही कम हो जाएंगे. गाड़ी गंतव्य पर रुकने के बाद भी शायिकाओं पर कंबल, चॉदर टॉवेल पड़े रहते हैं. तब सब सुरक्षित रहता है. उनको किसी की सुननी है ही नहीं. अक्सर चादर फटे पुराने व मैले होते हैं. उतरे हुए यात्रियों द्वारा उपयोग किए गए चादर किसी तरह मोड़कर लिफाफे में रख कर भी दिए जाते हैं. शिकायत पर बेचारा अटेंडेंट मारा जाता है. ठेकेदारों की बाल भी बाँका नहीं होता. उसका (अटेंडेंट) कहना है कि मुझे जैसे कपड़े मिलेंगे मैं वैसे ही तो दे पाऊंगा. बात जायज लगती है. निगरानी करने वाले कुछ ध्यान दें तो ही स्थिति सुधर सकती है. अब समय आ गया है कि रेलवे यूज एंड थ्रो प्रकार के चादर व टॉवेल का प्रयोग शुरु कर दे. या फिर टिकट में ही पूछकर चादर टॉवेल दिया जाए और उसे यात्री अपने साथ ले जाएं या फेंके उनकी जिम्मेदारी- चार्ज तो टिकट के साथ ले लिया जाएगा.


वैसे ही कॉटेरिंग के हालात हैं. कई तरह के कानूनों के बाद भी पेंट्रीकार वाले गाडियों में भी बाहर के प्राईवेट वेंडर चाय, बिस्किट, नाश्ते चेन-ताले, बूट पॉलिश गुड़िए, मेगाजिन्स, अखबार इत्यादि बेचते खुले आम नजर आते हैं. जब बंद करना ही नहीं है तो कानून क्यो बनाए जाते हैं. या फिर रेलवे चाहती है कि स्टेशन स्टाफ भी कुछ कमाई कर ले. वैसे इन दिनों जहर खुरानी की खबरे बहुत हो गई हैं किंतु इस पर रेलवे के अदिकारियों का ध्यान अभी तक नहीं गया है. न जाने किस बड़े हादसे का इंतजार किया जा रहा है.

मुझे संकोच है कि क्या कोई रेलवे का अधिकारी किसी ट्रेन में खाना खाकर अनुभव करता भी है कि यह कैसा है. कई बार पंखे चलते नहीं हैं... ए सी की सेटिंग पर कोई ध्यान नहीं है, कभी पसीने छूटते हैं तो कभी बर्फ जमने लगती है और एटेंडेंट अपनी शाय़िका पर खर्राटे भरते सोते रहता है.


खिड़की की तरफ की शायिकाओं का हाल-1
टॉयलेट में पानी नहीं होने की समस्या तो अर्ध शती पुरानी है. बचपन में इसी से तंग आकर मैंने सफर के दौरान कुछ भी नहीं खाने का प्रण लिया था जो आज भी कायम है.

जब बात आती है शायिका उपलब्ध कराने की तो देखा गया है कि पहले आरक्षण करने वाले को इमेर्जेंसी खिड़की के पास औकर खिड़की की तरफ की शायिकाएं उपलब्ध कराई जाती हैं. और बाद में करने से क्यूबिकल के भीतर की शायिकाएं मिल रही हैं. बुजुर्ग जो लोवर बर्थ (निचली शायिका ) माँगते हैं उनको खिड़की के पास की निचली शायिकाएं दी जाती हैं खास कर 55 वर्ष से ऊपर के लोगों को कमर व पीठ की समस्यायें रहती हैं और खिड़की के पास की निचली शायिकाओं की हालत उनके लिए बहुत ही असुविधाजनक होती है. इस पर महाप्रभु ने कुछ सोचा ही नहीं. ऐसे ही एक हालात के फोटोग्राफ मैं शामिल करने की कोशिश कर रहा हूँ. शायिका के दोनों हिस्सों में करीब दो इंच का लेवल फर्क है. कोई सोए तो कैसे. यह हालत सभी गाड़ियों में एक सी है.

खिड़की की तरफ की शायिकाओं का हाल-2
दूसरा – खिड़की के पास की शायिकाएं लंबाई में भीतर की शायिकाओं से छोटी हैं. इससे लंबे लोगों को बहुत तकलीफ होती है. थ्री टीयर (एसी में भी) के ऊपरी बर्थ पर कोई बैठकर पानी भी नहीं पी पाता – बोतल छत से टकरा जाती है. इन पर विचार करना – रेलवे के मनीषियों को भाता नहीं है क्या ?


टिकटिंग की बात करें तो इंटरनेट टिकटिंग की सुविधा तो दी है किंतु ऐसी कई सुविधाएं हैं जो इंटरनेट पर नहीं हैं पर टिकट खिड़की पर उपलबध है. मुझे तो कोई तसल्लीबख्श कारण नजर नहीं आता. शायद रेलवे के जानकार कुछ बता पाएं तो अच्छा होगा.

1.   टेलिस्कोपिक किराया सुविधा इंटरनेट वाले ग्राहकों को उपलब्ध नहीं हैं.
2.   इंटरमीडिएट स्टेशन बोर्डिंग की सुविधा भी इंटरनेट वाले ग्राहकों को उपलब्ध नहीं हैं.
3.    जहाँ टिकट खिड़की के बुक किए वेईटिंग टिकट पर यात्री सफर के दौरान शाय़िका की माँग कर सकता है और उपलब्ध होने पर उसे दी जाती है वहाँ इंटरनेट टिकट गाड़ी के आरक्षण चार्ट बनते ही – आरक्षित न होने पर - अपने आप रद्द हो जाता है और उस पर यात्री सफर भी नहीं कर सकता. यह सुविधा है या असुविधा रेलवे ही बताए.

खिड़की की तरफ की शायिकाओं का हाल-3
4.      4.  और तो और रेलवे के पास व पी टी ओ (सुविधाओं) पर – इंटरनेट से आरक्षण नहीं हो सकता है. यानी रेल कर्मचारी अपनी सुविधा को इंटरनेट से नहीं पा सकता उसे टिकट खिढ़की पर जाना जरूरी है. जहाँ तक कार्यरत लोगों की बात है – उम्र उनका साथ देती है लेकिन रिटायर्ड कर्मचारियों के लिए यह मात्र असुविधा ही नहीं, सजा है. पूरे परिवार के साथ सफर करने पर भी उनकी टिकट के लिए खिड़की पर आरक्षण की मजबूरी है . इससे बर्थ मिल भी जाए, तो यहाँ वहाँ मिल जाते हैं और फिर बुजुर्ग परेशान होते रहते हैं.

5.    इन सबसे बढ़कर है आरक्षित डिब्बों में अनारक्षित यात्रियों का सफर. शाम के लौटने वाले व सुबह नौकरियों पर जाने वाले दैनिक यात्री तो स्लीपर कोच में यात्रा करना अपना अधिकार समझते हैं. टिकट चेकिंग स्टाफ के परिचित इन लोगों से वे टिकट भी नहीं पूछते.  रेलवे के कर्मचारी तो धड़ल्ले से एसी स्लीपर में भी सफर करते नजर आते हैं.

मेरा प्रस्ताव है कि रेलवे इस पर गंभीरता से विचार करे और कोशिश करे कि गाड़ियों के समय – यथा संभव इस सुविधा के प्रतिकूल रहे. हाँ यह पूरी तरह सभव नहीं है. अन्यथा ऐसी गाड़ियों में डेली पेसेंजरों के लिए कुछेक बोगियाँ लगा दें, जिससे आरक्षित यात्रियों का सफर सुहाना हो सके. 

इंटर सिटी जैसी गाड़ियों बढ़ाई जाएं जिनमें दैनिक यात्री सफर कर सकें. ऐसा करना संभव भी है. रेलवे के कर्मचारियों को पास के अन्य स्टेशन में रहने की सुविधा देने पर किसी शुल्क पर मासिक पास अनिवार्य किया जाए.

आज के जमाने में भी कई लंबी दूरी की गाड़ियों के हर शायिका पर मोबाईल व लेपटॉप चार्जर नहीं लगे हैं. अब इंटरनेट सुविधा की सोची जा रही है. अटेंडेंट और टीटीई तो शिकायत पुस्तिका देने से भी मना कर जाते हैं कई बार तो कहा जाता है कि शिकायत पुस्तिका गार्ड के पास है- यह सब उपलब्ध नहीं कराने के बहाने हैं. आज के इंटरनेटयुग में शिकायत पुस्तिका तो हटा ही देनी चाहिए और नेट पर इन सबकी सुविधा उपवलब्ध करा दी जानी चाहिए.  

अंततः कहना चाहूँगा कि -

कम से कम सुपरफास्ट ट्रेनों में तो बिना आरक्षण सफर बंद ही कर देना चाहिए. इंटरनेट पर बुक की गई टिकटों को – गाड़ी विशेष के मंजिल पर पहुँचने के बाद ही स्वतः निरस्त होना चाहिए . वेईटिंग वाले यात्री खिड़की टिकटों की तरह सफर कर सकना चाहिए. रेलवे के पास-पीटीओ धारकों के लिए भी इंटरनेटपर आरक्षण की सुविधा होनी चाहिए. 

बात रही अन्य जन सुविधाओं की रेलवे के चाहिए कि अपने बातों से नहीं काम से बताए कि सुविधाएं बढ़ रही हैं.


अच्छा होगा कोई रेलवे विभाग का कर्मचारी इसे प्रभु या फिर महाप्रभु तक पहुचाने में मदद करे. देखें कही जूँ भी रेंगती है या नहीं.

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अयंगर.















सोमवार, 13 अप्रैल 2015

शहीद नेवल ऑफिसर, किरण शेखावत

शहीद नेवल ऑफिसर, किरण शेखावत

दो दिन पहले अखबार में पढ़ा, तो सर चकराया. आँसू गालों पर ढ़लने लगे. सोचा क्या हमने यही सीख पाई है ?

हाल ही में गोवा के दायरे में नौ सेना का एक डॉर्नियर का हादसा हुआ. इसमे हरियाणा की रहने वाली नेवल ऑफिसर किरण शेखावत जी शहीद  हो गई. शेखावत हरियाणा के कुर्थला गाँव की रहने वाली हैं.

हादसे के बाद जब से उनका पार्थिव शरीर गाँव पहँचा है, आस पास के गाँवों के लोग भी उन्हें श्रद्धाँजली देने उमड़ पड़े हैं. घर वालों ने तो यहाँ तक कहा कि शादी से ज्याहा लोग तो शहादत पर आए है. अखबारों ने भी कहा कि हादसे के बाद से कुर्थला गाँव, जिसे कोई जानकार ही नहीं था. पूरे भारत के नक्शे पर आ गया है. खेतो के मजदूरों से लोग कुर्थला का पता पूछते हुए आ रहे हैं.
यहाँ तक तो सब कुछ अच्छी बात हुई.

कल अखबार में पढ़ा कि हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर जी भी किरण को श्रद्धांजली अर्पित करने जाना चाहते थे. उनके कार्यालय ने फोन करके घर वालों को इस बारे में सूचना दी. किसी कारण वे नहीं जा सके , कार्यक्रम रद्द हो गया. दूसरी बार भी ऐसा ही हुआ.

मुख्यमंत्री के आगमन का कार्यक्रम होने की जानकारी के बाद कोई कैसे चुप बैठ सकता है. दो बार कार्यक्रम रद्द होने के बाद अगली खबर न पाकर घर वालों (शायद ससुर जी) ने मुख्यमंत्री कार्यालय में फोन कर उनका कार्यक्रम जानना चाहा. वहाँ से मिले जवाब को सुनकर उन्हें सदमा हुआ. होना ही था . जिस बात को जान कर हमें दुख हो रहा है उस बात को सुनकर रिश्तेदारों को तकलीफ होना तो स्वाभाविक ही है.

अखबारों में बताया गया है कि मुख्यमंत्री कार्यालय से उनका प्रोग्राम जानने के लिए फोन करने पर कहा गया –  यदि मुख्यमंत्री आ जाएंगे तो क्या उनकी शहादत सफल हो जाएगी.

यदि ऐसा कहा गया है तो सच में बड़ी शर्मिंदगी की बात है. एक तरफ शहीद के परिवार के लोग वैसे ही दुखी हैं कि उनने परिवार का एक सदस्य खो दिया. दूसरा लोग शहादत को इज्जत देकर परिवार को साँत्वना दे रहे हैं. ऐसे वक्त पर शहादत को श्रद्धाँजली देने की बात तो दूर, उनसे इस तरह की बदतमीजी से पेश आना बहुत ही शर्मिंदगी की बात है. अखबार ने यह भी लिखा है कि शहीद के ससुर ने अब उन्हें आने से मना कर दिया है. 

इस खुद्दारी को सलाम करने को जी चाहता है.

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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

मर्जी का मालिक

मर्जी का मालिक

बहुत अच्छा लगा, मन बहुत बहला. तरह - तरह के सुझाव  आए और टिप्पणियाँ आईं. कुछ मजेदार तो कुछ फूहड़. किंतु मन सभी ने बहलाया. कारण दीपिका की माय चॉईस. उसके बाद उसका पुरुष संस्करण.

दीपिका की बात – यदि खुले दिलोदिमाग से सोचें, तो बहुत ही उत्तम है - तब तक कि वे नारी स्वतंत्रता की बात करती हैं. लेकिन स्वतंत्रता की जो परिभाषा वे गढ़ना चाहती हैं, उस पर कुछ को तो आपत्ति है ही, जैसा सुना जा रहा है. 

अब पुरुष संस्करण की तरफ चलें. सही मायने में  किसी ने दीपिका को जवाब देना चाहा है, इस संस्करण से. इसकी सबसे अच्छी बात कि नर और नारी यानी स्त्री-पुरुष दोनों का सम्मान करें. अंत में कही गई है - बहुत ही बढ़िया संदेश है.

बाकी दोनों वीड़ियों के बीच में जो कुछ भी कहा गया है जैसे – मैं घर देर से आऊँ का मतलब नहीं कि मैं धोखा दो रहा हूँ.. कोई मायने नहीं रखती. आपको शादी करने की कोई मजबूरी नहीं थी. फिर भी आपने मन मुताबिक शादी की. तो शादी के बंधनों को, जिनको आपने अग्नि के समक्ष फेरे लेकर स्वीकारा है – उनको तो निभाओगे. पति – पत्नी की परंपरा को आपने अपनाया है तो निभाईये. किसी ने बंदूक की नोक पर तो आपकी शादी नहीं करवाई थी. बल्कि आपने तो लड़की को सब्जियों की तरह देखा जाँचा - परखा. दीपिकाएँ भी इस विधा में पीछे नहीं हैं. तदनुसार उन पर भी यही बात लागू होती है. साथ में यह बात दीपिका से है कि शादी के पहले वे जो कहती हैं, मानना संभव है, वे स्वतंत्र हैं. लेकिन यदि शादी की है, तो निभाने के लिए जिम्मेदारी उनकी भी होगी. शादी तुमसे करूँगी और सेक्स किसी और से – वाली मेरी मर्जी आपसी सहमति के बिना तो चल नहीं सकती. और यदि सहमति हो गई तो दोनों संवतंत्हाँर हैं - एक नहीं. शादी के बिना सेक्स किसी से करें - पुरुष से स्त्री से या अन्येतर से कब, कहाँ कैसे करें आपकी मर्जी. कौन रोक सकता है. वैसे भी इसे ही सहवास कहा जाता है.

दीपिका ने मेरी मर्जी केवल सेक्स के बारे में ही कहा है. ऐसा लगता है कि अन्य विषयों पर समाज की हालातों से वे सहमत हैं. उन्हें कोई तकलीफ नहीं है. बाकी बातें शायद समाज को कही बातों से समझने पर छोड़ दिया है. जैसे खाना बनाऊँ न बनाऊं, बच्चे पैदा करूँ न करूं. सज-धज के रहूँ या न रहूँ, सभी में उनकी मर्जी तो है, किंतु यदि दूसरे को भी मर्जी समझा दी गई होती या मना लिया होता, तो बहुत अच्छी बात होती. यह बात केवल दीपिकाओं के लिए नहीं दीपकों के लिए भी लागू होती है.

आज के समाज में नर – नारी समान हैं. वैसे यह तो ऊपर वाले ने बनाते वक्त ही सोच लिया था. लेकिन इंसान हर किसी बात को अपने ढंग से सोचता है और उसके अपने पर्यायवाची अर्थ निकाल लेता है. वह तो ईश्वर से भी होड़ करने लगा है. फिर किसी दूसरे इंसान को वो क्यों समझेगा या क्या समझेगा.

जब हम घर से बाहर जाते हैं तो घर में माँ, बीबी, बहन या बेटी को बताकर जाते हैं कि फलाँ जगह जा रहा हूँ और इतने बजे तक लौटूँगा. यदि आपकी मर्जी नहीं है तो न बताईए – पर जरा गौर करें कि बताने से किसको क्या फायदा हो रहा है या न बताने से, किसको क्या नुकसान होने वाला है. आप खुद ही जान जाएंगे कि इसमें उनका नहीं, प्रथमतया आपका ही भला है और साथ में औरों का भी. क्योंकि वे आपके अपने हैं और आपको अपना समझते हैं. अन्यथा मैं सड़क में हर किसी को बताता तो नहीं जाऊँगा. यही हम इंसानों के प्रेम-प्यार और अपनापन के बंधन हैं  – जो शनैः- शनैः शारीरिक सौष्ठव के चलते, नारी को अबला कहकर (बनाकर), नर ने अपने कब्जे में कर लिया है. इन बंधनों को तोड़ दीजिए और सोचिए. हर किसी की अपनी मर्जी चल सकती है, कोई किसी से सरोकार नहीं रखेगा. हम अपनी सारी सभ्यता भूल, फिर असभ्य होना चाहते हैं. – हमारी मर्जी.

मर्जी की होड़ में किसका भला हो रहा है. – किसी ने सोचा. नारी के बिना नर व नर के बिना नारी – जीवन तो असंभव प्रतीत होता है. संसार का सार है नर – नारी संगम. इसके बिना संसार थम जाएगा प्रगति नहीं होगी. और अंततः संसार का ह्रास व नाश होना तय है. मैंने कहीं किसी संदर्भ में लिखा है

इशारों के तुम्हारे भी, अदा यूँ हसीन होती है,
मत छूना मुझे मुझको बड़ी तकलीफ होती है
अगर आदम ने हव्वा से कहा होता कि मत छूना,
न होता सार जीवन का न ये संसार ही होता


अब बात आती है नारी पर व्यभिचार की. नर सदियों से ऐसा करता आ रहा है. नारी को अबला बता कर – बनाकर, मजबूर विवश कर  या फिर अपने विभिन्न तरह के दम पर वह नारी का शोषण करता आया है. समाज सुधारकों ने नारी उत्थान के लिए नारी शिक्षा का प्रावधान किया, इससे नारी कमाऊ पत्नी बन गई. मकसद था समय - बेसमय मुसीबत आने पर अपने पैरों पर खड़े रह सकना ताकि नर-समाज नाजायज फायदा न उठाए. लेकिन पासा उल्टा ही पड़ गया. उसे चाहिए था आत्मविश्वास, किंतु उसके विश्वास को ही दबोच दिया गया. नारी ने विद्रोह किया क्योंकि वह पाश्चात्य देशों में नारी की स्वतंत्रता को देख रही थी. वही नारी जो पाश्चात्य सभ्याताओं में नारी की स्वतंत्रता देख, पढ़कर समझती थी – ने ही विद्रोह का साथ दिया. वैसे भी फैशन परस्त लोग पाश्चात्य की और उन्मुख खड़े ही हैं. तो फैशन के साथ साथ वहां की और बातें भी तो सामने आएँगी – स्वाभाविक है.

अब यदि नारी स्वातंत्र्य माँगती है तो क्या बुरा करती है ? नर को क्या तकलीफ है ? कि नारी को स्वच्छंदता दे नहीं सकता – केवल उसका गुमान? उसका पौरुष(?). नर का पौरुष नारी के सम्मान में है, न ही उसके शोषण में. इसी देश के विद्वानों ने कहा है – यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः हमें किसी और से सीखने की जरूरत नहीं है. ताकतवर अमरीका यदि विश्व भर में सरगना बना घूमता है, तो हमें तकलीफ क्यों होती है ?...तब कहते हैं कि बलशाली हो तो कमजोरों की रक्षा करो इसी में भलाई है, इज्जत है. हम  नर क्या कर रहे हैं?  बल है तो जिसे अबला कहते आए हो, उसकी रक्षा करो, उसको ताकत दो. न कि उसका शोषण करो.

आज जो हमारे देश में हो रहा है – नारी पर व्यभिचार कभी अमरीका जैसे देशों में भी हुआ ही होगा. आज वे संतुष्टि की हद तक पहुँच चुके हैं. उनके लिए सेक्स अब कोई बंधन नहीं रह गया है. शादी के पहले, हर समय अपनी मर्जी से कर सकते हैं और करते भी हैं. लेकिन शादी के बाद (जिसके लिए कोई मजबूरी नहीं है) वे भी बँधे रहने में ही विश्वास रखते हैं. यदि शादी से मन भर गया हो या दोनों में से कोई भी व्यभिचारी साबित हुआ तो तलाक तक की नौबत आ जाती है. अक्सर तलाक आपसी सहमति से होते हैं, किंतु कुछ मुद्दे तो कोर्ट - कचहरी भी पहुँच ही जाते हैं. यही सब हमारे देश में भी होगा किंतु बदलाव का वहाँ तक आने में समय लगेगा. यह तभी संभव हो पाएगा, जब हर नर - नारी दुनियाँदारी में शिक्षित हो, पढ़ाई में नहीं. अशिक्षित के साथ शोषण करना आसान होता है और शोषण करने वाले ऐसे ही मौके खोजते हैं. नारी का अधिकार अकेली जाने का तो है, इसमें दो मत नहीं, किंतु ऐसी विषाक्त हालातों में वही भोगती है. इसलिए उसे अपनी रक्षा के लिए तत्पर होना अच्छा है. यदि भगवान शारीरिक तौर पर स्त्री और पुरुष को इस तरह बनाता कि पुरुष इसे भुगतता, तो बात अलग ही होती. इसका तात्पर्य यह नहीं कि असुरक्षित नारी का शोषण हो. किंतु हर समाज में ऐसे दुष्ट तो मिलते ही हैं, उनसे रक्षा भी तो करनी है. जब तक क्षुधा, पूर्ण – तृप्ति तक नहीं पहुँचती, ऐसी घटनाएं तो होती रहेंगी. जब भूख मिट जाएगी तब खाना सड़ जाएगा, लेकिन कोई खाने को तैयार नहीं होगा. हमारे यहाँ अभी भूख बहुत है क्योंकि सेक्स को सदियों से दबाया गया है. पाश्चात्य के संगत में अभी खुलकर बाहर आ रहा है. पाश्चात्य देशों में भृख तृप्त हो चुकी है. हम भी धीरे -  धीरे वहां तक पहुँचेंगे. लेकिन अच्छा हो जो हम अपने तरीकों से उससे पहले ही यह रवैया खत्म कर सकें. इसके लिए नारी का इस तरह से फट पड़ना बहुत ही अच्छा है. 

इसी ध्येय से मैं दीपिकाओं को बधाई देता हूँ और दीपकों से अनुरोध हैं कि अपनी शिक्षा – दीक्षा और बुद्धिमत्ता को ध्यान में रखते (का संज्ञान लेते) हुए, अपने देश के पूर्वजों की परंपरा निभाते हुए नारी को समाज में इज्जत दें और उसे अपने समकक्ष रखें.

उधर दीपिकाएं अपने को नर के समान मानने में संकोच न करें और न हीं हर वक्त अपने को नर से आगे दिखाने की कोशिश कर, नर को नीचा दिखाएं. आप सब भी मानेंगे कि इस पुरुष प्रधान समाज (जिसे हम आज तिरस्कृत कर रहे हैं) उसमें नर (जो शक्तिशाली था), अब दबकर नारी के समान आने की सोचने लगा है. इस वक्त उसे ललकारोगे तो मंजिल पहुँचनें में देर लग जाएगी. परिवर्तन की गति को बरकरार रखने के लिए नारी का यह ललकार उचित नहीं लगता. अन्यथा होड़ में मंजिल तक पहुँचने में बाधाएं बढ़ जाएंगी.

यदि दोनों पक्ष नर और नारी के समान मानकर चलें तो दुनियाँ के रंग ही निराले हो जाएं.


यदि आपस में होड़ ही करना है तो आपकी मर्जी.

सोमवार, 2 मार्च 2015

पारंपरिक होली

पारंपरिक होली

पिछली होली में हमने कोई पेड़ नहीं काटा.
सोचा इस बार कुछ नया करें,
पर कुछ सूझा नहीं
कि करें तो क्या नया करें.
कुछ खास रास नहीं आया.

फिर सोचा चलो ,
नया नहीं तो न सही,
कुछ पुराना ही,
वास्तविकता लिए हुए करें.
गाँव चला आया,
बुजुर्गों से चर्चा – परिचर्चा की,
सलाह मशविरा किया.
जाना कि होली असली रूप में,
कैसे मनाई जाती थी.
पारंपरिक होली की विधी जानी,

खेतों को जोत – जुता कर,
हल चला-चलवाकर,
सारे ठूँठ इकट्ठे किए,
गाँव के खेल में ही
उन्हें एकत्रित कर
उनसे ही होलिका बनाया,

गाँव के घरों से सभी को आमंत्रित किया,
पारंपरिक साज सज्जा के साथ,
सभी बहनें, बहुएँ,भाभियाँ,
माताजी, मौसीजी,
मामीजी,फूफीजी,
नानीजी, दादीजी,
सारे, अपनी अपनी तरह से
सज-धज कर,
सजा धजा कर ,
पकवान भी लेते आए,

भैयाजी, दामाद जी,चाचा-ताऊ,
मामा- फूफा, सारे बुजुर्ग,
सभी सफेद धवल वस्त्रों में,चमकते हुए,
गुलाल संग लाए,

पूजा के बाद ,
गाँव के सबसे बुजुर्ग
के हाथों होलिका दहन करवाया,
स्त्रियों ने अपनी तरह से ,
विधि- विधान से पूजा की
सारे चुन- मुन
बालक-बालिका वृंद की मस्ती
तो बस देखने लायक थी,

होलिका दहन-पूजन के बाद,
सभी ने उसमें अपने-अपने खेत की
धान की बालियाँ पकाया,
आपस में बाँटा,
फिर बताशे, इसायची दाने,
मिठाईयाँ बँटी,
बच्चे-बड़े, स्त्री –पुरुष,
आपस में गुलाल खेला,
आपसी बैर भूलकर गले मिले,

सारे गाँव वासियों ने खूब आनंद किया
सबने एक ही स्वर में कहा ,
बबुआ, कित्ते बरस बाद,
ऐसन होली मानाए हैं रे.
............................................................

एम.आर अयंगर.


बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

9 वीं कोरबा जिला केरम प्रतिस्पर्धा का समापन

9 वीं कोरबा जिला केरम प्रतिस्पर्धा का समापन

छत्तीसगढ़ राज्य केरम फेडरेशन के सद्स्य रूप में जिला केरम संघ कोरबा के तत्वाधान में प्रगतिक्लब झमनीपाली, एनटीपीसी द्वारा आयोजित 9 वीं कोरबा जिला केरम प्रतिस्पर्धा दिनाँक 18 जनवरी 2015 को पुरस्कार व यादगार वितरण के साथ संपन्न हुआ.
प्रतिस्पर्धा में जिले के विभिन्न उद्यमों व सुदूर कोने-कोने से आए महिला व पुरुष खिलाड़ियों ने एकल व डबल्स में भरपूर जोश के साथ भाग लिया. प्रतिस्पर्धा हर चरण पर रोचक रही. अंपायरों ने भी विशिष्ट रुचि दिखाई कि खेल में किसी भी तरह का गलत निर्णय न हो पाए. खेल के संतुष्टिपूर्ण आयोजन से खिलाड़ी, आयोजक अंपायर, उपस्थित प्रगति क्लब व जिला केरम संघ के पदाधिकारी एवं एन टी पी सी लिमिटेड के आमंत्रित विशिष्ट जन 
सभी अति प्रसन्न हुए.

दो दिनों में कुल करीबन 70-75  खिलाड़ियों के विभिन्न मैचों का 

आयोजन हुआ. इनमें से ही चुनिंदा खिलाड़ियों नें अंपायरों की भी 

जिम्मेदारी निभाई. खेल के दौरान खिलाड़ियों के उत्साह वर्धन के 
लिए साथियों ने वाह वाही भी की. खेल भावना से ओतप्रोत 
माहौल में सभी ने आनंद लिया. खेल के आयोजन को हर तरफ से सराहना ही मिली.

आयोजन के परिणाम निम्नानुसार रहे –

महिला एकल – सर्व श्रीमतीकुमारी

प्रथम – अंजना समद्दार
द्वितीय     - शकुंतला
तृतीय - एस जॉली


पुरुष एकल - सर्व श्री

प्रथम – मों. निजामुद्दीन
द्वितीय     - गणेश राठौर
तृतीय - अमित गंडाईत

महिला युगल – सर्व श्रीमतीकुमारी

प्रथम – अंजना समद्दार एवं एस जॉली.
द्वितीय     - शकुंतला एवं आशा ठाकुर
तृतीय - जया बनिक एवं परिमिता चक्रवर्ती

पुरुष युगल – सर्व श्री –

प्रथम – मों. निजामुद्दीन एवं अमित गंडाईत.
द्वितीय     - किशोर वर्मा एवं प्रेमलाल. 
तृतीय - गणेश राठौर एवं बी एम धुर्वे.

दोनों दिन खेल प्रतियोगिता रात 1030 बजे तक चली . पूरा हॉल खिलाडियों, अंपायरों आयोजकों एवं दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था. देर रात तक पूरी चहलकदमी रही.

एन टी पी सी लिमिटेड़ कोरबा के समूह महा प्रबंधक श्री प्रकाश तिवारी व श्रीमती सीमा तिवारी दंपतियों ने विजेता प्रतिभागियों को पुरस्तकार व यादगार प्रदान किया. वहीं प्रगति क्लब के अध्यक्ष श्री के एस सिंह ने अंपायरों व अन्य सहयोगियों को स्मृति चिह्न भेंट किया. सभा का समापन अध्यक्ष श्री  सिंह के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ.

समापन पश्चात सभी प्रतिभागियों व आयोजकों के लिए एट रात्रिभोज का भी आयोजन किया गया.

चित्रों के लिए नीचे के लिंक को क्लिक करें.


प्रस्तुति  - एम आर अयंगर.