मर्जी का मालिक
बहुत अच्छा लगा, मन बहुत बहला. तरह - तरह के सुझाव आए और टिप्पणियाँ आईं. कुछ मजेदार तो कुछ फूहड़.
किंतु मन सभी ने बहलाया. कारण दीपिका की “माय चॉईस”. उसके बाद उसका पुरुष संस्करण.
दीपिका की बात –
यदि खुले दिलोदिमाग से सोचें, तो बहुत ही उत्तम है - तब तक कि वे नारी स्वतंत्रता की
बात करती हैं. लेकिन स्वतंत्रता की जो परिभाषा वे गढ़ना चाहती हैं, उस पर कुछ को
तो आपत्ति है ही, जैसा सुना जा रहा है.
अब पुरुष संस्करण
की तरफ चलें. सही मायने में किसी ने दीपिका
को जवाब देना चाहा है, इस संस्करण से. इसकी सबसे अच्छी बात कि “नर और नारी यानी स्त्री-पुरुष दोनों का सम्मान करें.” अंत में कही गई है - बहुत ही बढ़िया संदेश
है.
बाकी दोनों
वीड़ियों के बीच में जो कुछ भी कहा गया है जैसे – “मैं घर देर से आऊँ का मतलब नहीं कि मैं धोखा दो रहा हूँ.”. कोई मायने नहीं रखती. आपको शादी करने की कोई मजबूरी नहीं थी. फिर भी आपने मन मुताबिक शादी की. तो शादी के बंधनों को, जिनको आपने अग्नि के
समक्ष फेरे लेकर स्वीकारा है – उनको तो निभाओगे. पति – पत्नी की परंपरा को आपने
अपनाया है तो निभाईये. किसी ने बंदूक की नोक पर तो आपकी शादी नहीं करवाई थी. बल्कि
आपने तो लड़की को सब्जियों की तरह देखा जाँचा - परखा.
दीपिकाएँ भी इस विधा में पीछे नहीं हैं. तदनुसार उन पर भी यही बात लागू होती है.
साथ में यह बात दीपिका से है कि शादी के पहले वे जो कहती हैं, मानना संभव है, वे
स्वतंत्र हैं. लेकिन यदि शादी की है, तो निभाने के लिए जिम्मेदारी उनकी भी होगी.
शादी तुमसे करूँगी और सेक्स किसी और से – वाली मेरी मर्जी आपसी सहमति के बिना तो चल नहीं सकती. और यदि सहमति हो गई तो दोनों संवतंत्हाँर हैं - एक नहीं. शादी के बिना सेक्स किसी से करें - पुरुष से स्त्री से या अन्येतर से कब, कहाँ
कैसे करें आपकी मर्जी. कौन रोक सकता है. वैसे भी इसे ही सहवास कहा जाता है.
दीपिका ने “मेरी मर्जी” केवल सेक्स के बारे में ही कहा है. ऐसा लगता है कि अन्य विषयों पर
समाज की हालातों से वे सहमत हैं. उन्हें कोई तकलीफ नहीं है. बाकी बातें शायद समाज
को कही बातों से समझने पर छोड़ दिया है. जैसे खाना बनाऊँ न बनाऊं, बच्चे पैदा करूँ
न करूं. सज-धज के रहूँ या न रहूँ, सभी में उनकी मर्जी तो है, किंतु यदि दूसरे को भी
मर्जी समझा दी गई होती या मना लिया होता, तो बहुत अच्छी बात होती. यह बात केवल
दीपिकाओं के लिए नहीं दीपकों के लिए भी लागू होती है.
आज के समाज में
नर – नारी समान हैं. वैसे यह तो ऊपर वाले ने बनाते वक्त ही सोच लिया था. लेकिन
इंसान हर किसी बात को अपने ढंग से सोचता है और उसके अपने पर्यायवाची अर्थ निकाल
लेता है. वह तो ईश्वर से भी होड़ करने लगा है. फिर किसी दूसरे इंसान को वो क्यों
समझेगा या क्या समझेगा.
जब हम घर से
बाहर जाते हैं तो घर में माँ, बीबी, बहन या बेटी को बताकर जाते हैं कि फलाँ जगह जा
रहा हूँ और इतने बजे तक लौटूँगा. यदि आपकी मर्जी नहीं है तो न बताईए – पर जरा गौर
करें कि बताने से किसको क्या फायदा हो रहा है या न बताने से, किसको क्या नुकसान
होने वाला है. आप खुद ही जान जाएंगे कि इसमें उनका नहीं, प्रथमतया आपका ही भला है
और साथ में औरों का भी. क्योंकि वे आपके अपने हैं और आपको अपना समझते हैं. अन्यथा
मैं सड़क में हर किसी को बताता तो नहीं जाऊँगा. यही हम इंसानों के प्रेम-प्यार और अपनापन के बंधन
हैं – जो शनैः- शनैः शारीरिक सौष्ठव के चलते, नारी को अबला कहकर
(बनाकर), नर ने अपने कब्जे में कर लिया है. इन बंधनों को तोड़ दीजिए और सोचिए. हर
किसी की अपनी मर्जी चल सकती है, कोई किसी से सरोकार नहीं रखेगा. हम अपनी सारी
सभ्यता भूल, फिर असभ्य होना चाहते हैं. – हमारी मर्जी.
मर्जी की होड़ में
किसका भला हो रहा है. – किसी ने सोचा. नारी के बिना नर व नर के बिना नारी – जीवन
तो असंभव प्रतीत होता है. संसार का सार है नर – नारी संगम. इसके बिना संसार थम
जाएगा प्रगति नहीं होगी. और अंततः संसार का ह्रास व नाश होना तय है. मैंने कहीं
किसी संदर्भ में लिखा है
इशारों के
तुम्हारे भी, अदा यूँ हसीन होती है,
“मत छूना मुझे मुझको बड़ी तकलीफ होती है “
अगर आदम ने
हव्वा से कहा होता कि मत छूना,
न होता सार
जीवन का न ये संसार ही होता
अब बात आती है
नारी पर व्यभिचार की. नर सदियों से ऐसा करता आ रहा है. नारी को अबला बता कर –
बनाकर, मजबूर विवश कर या फिर अपने विभिन्न
तरह के दम पर वह नारी का शोषण करता आया है. समाज सुधारकों ने नारी उत्थान के लिए
नारी शिक्षा का प्रावधान किया, इससे नारी कमाऊ पत्नी बन गई. मकसद था समय - बेसमय
मुसीबत आने पर अपने पैरों पर खड़े रह सकना ताकि नर-समाज नाजायज फायदा न उठाए.
लेकिन पासा उल्टा ही पड़ गया. उसे चाहिए था आत्मविश्वास, किंतु उसके विश्वास को ही
दबोच दिया गया. नारी ने विद्रोह किया क्योंकि वह पाश्चात्य देशों में नारी की
स्वतंत्रता को देख रही थी. वही नारी जो पाश्चात्य सभ्याताओं में नारी की स्वतंत्रता
देख, पढ़कर समझती थी – ने ही विद्रोह का साथ दिया. वैसे भी फैशन परस्त लोग पाश्चात्य
की और उन्मुख खड़े ही हैं. तो फैशन के साथ साथ वहां की और बातें भी तो सामने आएँगी
– स्वाभाविक है.
अब यदि नारी
स्वातंत्र्य माँगती है तो क्या बुरा करती है ? नर को क्या तकलीफ है ? कि नारी को स्वच्छंदता दे नहीं सकता – केवल
उसका गुमान? उसका पौरुष(?). नर का पौरुष नारी के सम्मान में है, न ही उसके शोषण में. इसी देश के
विद्वानों ने कहा है – यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः हमें किसी और
से सीखने की जरूरत नहीं है. ताकतवर अमरीका यदि विश्व भर में सरगना बना घूमता है,
तो हमें तकलीफ क्यों होती है ?...तब कहते हैं कि बलशाली
हो तो कमजोरों की रक्षा करो इसी में भलाई है, इज्जत है. हम नर क्या कर रहे हैं? बल है तो जिसे अबला कहते आए हो, उसकी
रक्षा करो, उसको ताकत दो. न कि उसका शोषण करो.
आज जो हमारे
देश में हो रहा है – नारी पर व्यभिचार कभी अमरीका जैसे देशों में भी हुआ ही होगा.
आज वे संतुष्टि की हद तक पहुँच चुके हैं. उनके लिए सेक्स अब कोई बंधन नहीं रह गया
है. शादी के पहले, हर समय अपनी मर्जी से कर सकते हैं और करते भी हैं. लेकिन शादी
के बाद (जिसके लिए कोई मजबूरी नहीं है) वे भी बँधे रहने में ही विश्वास रखते हैं.
यदि शादी से मन भर गया हो या दोनों में से कोई भी व्यभिचारी साबित हुआ तो तलाक तक
की नौबत आ जाती है. अक्सर तलाक आपसी सहमति से होते हैं, किंतु कुछ मुद्दे तो कोर्ट
- कचहरी भी पहुँच ही जाते हैं. यही सब हमारे देश में भी होगा किंतु बदलाव का वहाँ
तक आने में समय लगेगा. यह तभी संभव हो पाएगा, जब हर नर - नारी दुनियाँदारी में शिक्षित
हो, पढ़ाई में नहीं. अशिक्षित के साथ शोषण करना आसान होता है और शोषण करने वाले
ऐसे ही मौके खोजते हैं. नारी का अधिकार अकेली जाने का तो है, इसमें दो मत नहीं,
किंतु ऐसी विषाक्त हालातों में वही भोगती है. इसलिए उसे अपनी रक्षा के लिए तत्पर
होना अच्छा है. यदि भगवान शारीरिक तौर पर स्त्री और पुरुष को इस तरह बनाता कि पुरुष इसे भुगतता, तो बात अलग ही होती. इसका तात्पर्य यह नहीं कि असुरक्षित नारी का शोषण हो. किंतु हर समाज में
ऐसे दुष्ट तो मिलते ही हैं, उनसे रक्षा भी तो करनी है. जब तक क्षुधा, पूर्ण –
तृप्ति तक नहीं पहुँचती, ऐसी घटनाएं तो होती रहेंगी. जब भूख मिट जाएगी तब खाना सड़
जाएगा, लेकिन कोई खाने को तैयार नहीं होगा. हमारे यहाँ अभी भूख बहुत है क्योंकि
सेक्स को सदियों से दबाया गया है. पाश्चात्य के संगत में अभी खुलकर बाहर आ रहा
है. पाश्चात्य देशों में भृख तृप्त हो चुकी है. हम भी धीरे - धीरे वहां तक पहुँचेंगे. लेकिन अच्छा हो जो हम
अपने तरीकों से उससे पहले ही यह रवैया खत्म कर सकें. इसके लिए नारी का इस तरह से
फट पड़ना बहुत ही अच्छा है.
इसी ध्येय से मैं दीपिकाओं को बधाई देता हूँ और दीपकों
से अनुरोध हैं कि अपनी शिक्षा – दीक्षा और बुद्धिमत्ता को ध्यान में रखते (का
संज्ञान लेते) हुए, अपने देश के पूर्वजों की परंपरा निभाते हुए नारी को समाज में
इज्जत दें और उसे अपने समकक्ष रखें.
उधर दीपिकाएं
अपने को नर के समान मानने में संकोच न करें और न हीं हर वक्त अपने को नर से आगे
दिखाने की कोशिश कर, नर को नीचा दिखाएं. आप सब भी मानेंगे कि इस पुरुष प्रधान समाज (जिसे हम आज तिरस्कृत कर रहे हैं) उसमें नर (जो शक्तिशाली था), अब दबकर नारी के समान
आने की सोचने लगा है. इस वक्त उसे ललकारोगे तो मंजिल पहुँचनें में देर लग जाएगी. परिवर्तन की गति को बरकरार रखने के लिए नारी का यह ललकार उचित नहीं लगता. अन्यथा होड़ में मंजिल तक पहुँचने में बाधाएं बढ़ जाएंगी.
यदि दोनों पक्ष
नर और नारी के समान मानकर चलें तो दुनियाँ के रंग ही निराले हो जाएं.
यदि आपस में होड़ ही करना है तो आपकी
मर्जी.
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