समरूपता
- असम और तेलंगाना
सालों पहले सन 1978 से 1990 तक असम से
संबंध रहा. कुछेक बार वहाँ जाना भी हुआ औऱ बाद में नौकरी पेशे के चलते दो एक साल
वहां रहना भी पड़ा.
उन दिनों असम गणतंत्र परिषद की नई नई
स्थापना हुई थी. आए दिन असम बंद हुआ करता था. उल्फा या कहें अल्फा तो बहुत बाद में आई.
वहां जब रहने का मौका मिला तो देखा-
जाना कि वहां का मुख्य मुद्दा परदेशियों (वे विदेशी कहते थे) का है. असमियों का
कहना था कि परदेशी हमारे देश से पैसा कमाकर अपने देश भेजते हैं और हमारा देश गरीब
का गरीब रह जाता है. उनका कहना था कि हम अपनी गति (लाहे-लाहे) से काम करेंगे और कोई परदेशी यहां
काम न करे. हमारी गति की कोई आलोचना ना करे. ऐसे तो प्रगति संभव नहीं थी. इसलिए
असम के बाहर के लोग वहां नियुक्त होते थे जिस पर उनको ऐतराज था. उस पर भी मुख्य
मुद्दा बंगालियों से था. असम के लोग बंगालियों को दुश्मन से कम नहीं मानते थे.
उनकी बातों से लगा कि असम कभी बंगाल का भाग था. या फिर यों कहिए कि असम भारतभूमि
से बंगाल के द्वारा ही जुड़ा है सो शायद वे समझते थे कि उनका सारा दुख दर्द बंगाल
के ही कारण है.
यह सब देख सुनकर बहुत तकलीफ हुआ करती थी.
लगता था कि कैसे हमारे देश में अन्य राज्य के लोग परदेशी हो गए.
बात अब समझ में आई कि ऐसी हालातें कैसे
उभरती हैं. हाल ही में आंध्र प्रदेश को विभाजित कर तेलंगाना राज्य बनाया गया. और
शुरु से तेलंगाना की अलग शख्सियत के लिए उनके नेता चंद्रशेखर राव जो मुंह आ कहे जा
रहे हैं. देश की राजनीति इस विषय पर दो धड़ों में बँट गई थी (और है भी). राज्य के
गठन की सूचना मिलते ही उनने कहना शुरु कर दिया कि बँटवारे में आँध्र का कोई भी
व्यक्ति तेलंगाना में नहीं रहेगा... खासकर सरकारी कार्यालयों में. सबको जाना ही
होगा.
यह ठीक असम की समस्य़ा का रूप ले रही है.
जो व्यक्ति सालों से, पीढ़ियों से राज्य के इस हिस्से में बस गया है उसे वापस जाने
को कहना...संयुक्त परिवार से कुछ को भगा देने से कम नहीं है.
जिनने
राज्य का विभाजन तय किया है उनको इस तरह की समस्याओं पर विचार कर लेना चाहिए था..
कम से कम अब कुछ करें, अन्यथा यह भीषण रूप धारण कर सकती है. कोई उस नेता को समझाए
कि उनकी यह जीत पागलपन में न बदल जाए और देश का भला करने के बदले देश के लिए एक और
मुसीबत न बन जाए.
लक्ष्मीरंगम.
तेलंगाना, असम
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