मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

अब की बार मोदी सरकार

 अब की बार मोदी सरकार
आस

इस बार, बल्कि दिसंबर 2013 के लोकसभा चुनाव से ही सरगर्मियां लगातार चल रही हैं. विधानसभा में अजब तरीके से आम आदमी पार्टी दिल्ली में आ गई और बाकी तीन राज्यों में भाजपा बहुमत पा गई. मात्र उत्तरपूर्वी एक राज्य में कांग्रेस अपनी साख बचा पाई थी.

तब तो ऐसा लग रहा था कि इस बार भाजपा छा जाएगी. क्योंकि दिल्ली की आम आदमी पार्टी एकदम नौसिखिया पार्टी थी. पता ही नहीं था कि -  कितने दिन की सरकार होगी ? क्या होगा ? इत्यादि. पुरानी पार्टी होती तो कोई कयास भी संभव था, पर आम आदमी पार्टी तो पूरी नई नवेली थी. उन्हें खुद नहीं पता चला कि उन्हें इतनी सीटें कैसे मिल गईं. खैर, कारण जो भी हो, डेढ माह के आसपास ही सरकार सिमट गई. इसका पूरा पूरा फायदा भाजपा को हुआ. काँग्रेस अस्तित्व की लड़ाई लड़ने की सोच रही थी क्योंकि विधान सभा चुनाव में उनकी हालत खराब हो गई थी. आम आदमी पार्टी की सरकार गिर गई थी तो साबूत बची केवल भाजपा.

राष्ट्रीय पार्टी के रूप में सब तरफ भाजपा ही दिखती थी. क्षेत्रीय पार्टियाँ तब तक ज्यादा क्रियाशील नहीं हुई थीं. इसे ही भाजपा की लहर कहा गया. सरकार में आने के तुरंत बाद से आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की ज़ुबान बिगड़ गई. किसी पर भी किसी भी तरह के आक्षेप कसे जाने लगे. मैं इस बात पर सही गलत का निर्णय देना नहीं चाहूंगा (या समझें मैं अपने आप को इसके काबिल नहीं समझता). पर यह जरूर कहना चाहूंगा कि जिस तरह से और जिस भाषा में ये आक्षेप कसे गए, वह सही नहीं था. इससे जनमानस आप से बिछुड़ने लगा. सारे सोशल मीडिया मे व समाचार पत्रों में इस बात पर आम आदमी पार्टी की कॉफी फजीहत हुई.

इधर मोदी अपने तीखे भाषणों से कांग्रेस पर प्रहार करते रहे. भाजपाईयों की जुबान तीखी होती गई और उधर आम आदमी पार्टी को किसी तरह समझ में आया कि जुबान सुधारनी है. सो गंगा उल्टी बहने लगी. समाचार पत्रों में अब भाजपा नेताओं की बदजुबानी घर करने लगी. हालाँकि काँग्रेस अब भी अपनी शख्सियत बचाने में लगी है, पर उनके कुछ बड़बोले नेताओं ने बदजुबानी नहीं छोड़ी. इसका पूरा सहारा आम आदमी पार्टी को मिला. उसकी बिगड़ती साख लौटने लगी. भाजपा नेताओं द्वारा विपक्षियों का शहजादा, राष्ट्रीय दामाद, झाड़ूवाला, खुजलीवाल जैसे संबोधन उन पर उल्टे पड़ने लगे.

भाजपा की आपसी कलह जो सामने आई तो उसकी साख को जोरदार झटका लगा. वरिष्ठ नेताओं को जिस तरह दर किनार कर मोदी को जो स्थान दिया गया – उससे तो लगा कि मोदी भाजपाई नहीं हैं .. शायद भाजपा का अस्तित्व ही मोदी  हैं. किसी व्यक्ति विशेष का संस्थान से उपर उठ जाना संस्थान की गरिमा को ख्त्म कर देता है. वही हो रहा है भाजपा के साथ. उधर भाजपा अपनी गरिमा खराब करने में लगी है और आम आदमी पार्टी सुधारने में, अब जहाँ जहाँ आम आदमी पार्टी और भाजपा की सीधी टक्कर है .वहां आम आदमी पार्टी की साख बढ़ने से टक्कर ज्यादा घमासान होने की संभावना बढ़ गई हैं और आश्चर्य नहीं होगा कि आधे जगहों पर भाजपा को मात खाना पड़े.

फलतः अब आम आदमी पार्टी फिर से मजबूत हो गई है. वाराणसी की जो खबरें आ रही हैं, उनकी मानें तो कहना मुख्किल है कि मोदी जीत पाएंगे. जबकि कुछ महीने पहले तक, एक समय था कि केजरीवाल को वहां कोई जानता नहीं था.

अब बात आती है सरकार बनाने की. भाजपा का दाँव रहा है 272+ सीट. जो समाचार पत्र भाजपा की ओर झुके थे उनने तो भाजपा को 300+ सीट तक भी पहुँचा दिया था. कोई कहने से नहीं चूका कि भाजपा पूर्ण बहुमत हासिल कर अपने इकलौते बलबूते पर सरकार बनाएगी. शायद यही आशय स्पष्ट किया गया – अब की बार मोदी सरकार – कहकर. वोट भाजपा के लिए नहीं मोदी को लिए माँगा जा रहा था और मांगा जा रहा है. कहने को तो भाजपाई आज भी सफाई देते हुए कहते हैं कि मोदी और भाजपा दो नहीं एक ही हैं. तो पार्टी का नाम छोड़कर मोदी का नाम क्यों. य़ाद आता है पुराने दिन जब कहा गया था – इंदिरा ईज इंडिया. अब मोदी ईज भाजपा. इसी अहम् के कारण सारे मोदी विरोधी या (कहिए असमर्थक) परे किए गए. जहाँ जहां मोदी को लगा कि यह मेरा समर्थन नहीं करेगी या करेगा उसे लाईन से हटा दिया गया. सारे निर्णय मोदी जी के खुद के हैं.

भ्रष्टाचार के विरोध का जो अभियान भाजपा से चला है, साफ नजर आता है कि वह आम आदमी पार्टी की देन है. भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार विरोधी जागरूकता तो अरविंद केजरीवाल की ही देन है. इसमें दूसरा मत तो संभव ही नहीं है. जाने माने भ्रष्टाचारियों को पार्टी में शामिल करने का जो दौर शुरु हुआ, तो भाजपा और भी पिटी. उसका विरोध हुआ तो नेता को दर किनार कर दिया. हाल में जो कुछ अखबारों में पढ़ा उससे तो लगता है कि सुषमा भी दूसरी कतार में रख दी गई हैं. अड़वानी, जसवंत, टंडन, जोशी जैसे तो पहले से ही बाहर है. समय समय पर इनकी भड़ास फूटती है और फिर भाजपा का कोई नेता या अध्यक्ष राजनाथ सफाई देते फिरते हैं.

कुछेक को पार्टी में शामिल करने के बाद – अंदरूनी विरोध के कारण उन्हें तुरंत निष्काषित भी करना पड़ा. क्या एक राष्ट्रीय पार्टी के यह शोभा देता है. शामिल करने के पहले ही परख लेना चाहिए न कि बाद में हकालने की नौबल ला खड़ाकर दें. भाजपा के नेता की बदजुबानी की तो हद हो गई, जब चुनाव आयोग ने शाह पर बंदिश लगा दी. जब आम आदमी पार्टी के कुछ लोगों ने टिकट लौटा दी तो काफी शोर हुआ अब अखबार नवीसों का मुँह बंद केयों हो गया -- खबरनवीस किसने खरीदे हैं.

क्षेत्रीय पार्टियों में जयललिता और ममता की पार्टीयाँ खास तौर पर दमदार बन रही है बाकी नीतिश, लालू और मुलायम के बारे कुछ कहना अनुचित होगा. भाजपा ने दोनों नारियों से बढ़िया तालमेल की बात कही और तुरंत ही दोंनों ने भाजपा की बखिया उखाड़ फेंकी. तो समझ में साफ आ रहा है कि भाजपा के अंदर का डर अब इतना हो गया है, कि छलकने लगा है. इसे सँभाला नहीं जा पा रहा है.

छोटे बडे पार्टियों से अब भाजपा गठबंधन का बात भी कर रही है और गठबंधन भी. यानी 300+ का वहम रखने वाली पार्टी को अब 272 के भी लाले पड़ते दिखते हैं. वैसे गठबंधन अच्छी बात है, पर इतनी शेखी बघारने के बाद ऐसे करना  – आपके डर का इजहार करता है. खैर गठबंधन के साथ ही सही – भाजपा सरकार में आए यही बहुत है.

इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा के मोदी में प्रबंधन कुशलता है. पर विपक्ष को अनदेखा करना उनकी रीत है. इसलिए पीठासीन भाजपा (खासकर मोदी के लिए) तगड़ा विपक्ष जरूरी है. इन हालातों में काँग्रेस से उम्मीद नही की जा सकती. फलस्वरूप हलातों के मद्दे नजर आस लगाए हुए हूँ कि भाजपा की सरकार के साथ विपक्ष में आम आदमी पार्टी आ जाए तो नकेल कसी रहेगी.

देखना यह है कि क्षेत्रीय पार्टियाँ और निर्दलीय किस प्रकार का मत रखते हैं.

उम्मीद पर दुनियाँ जीती है सो हम भी नजर लगाए बैठे हैं.
एम.आर. अयंगर.




सोमवार, 14 अप्रैल 2014

खुली हवा में...............

खुली हवा में...............

हाल ही मे किसी ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दी थी. उनका कहना था कि दीवारों पर भगवानों की तस्वीरें लगाने के बावजूद भी जनता दीवाल खराब कर रही है . इसलिए लोगों को अपने घर की दीवारों पर ऐसे तस्वीर लगाने से रोका जाए. और कि जन साधारण को खुले में मूत्रत्याग करने से, आदेश द्वारा रोका जाए. न्यायालय ने दोनों ही संदर्भों में नकारते हुए कहा कि किसी को उनके अपने घर की दीवारों पर भगवान की तस्वीर न लगाने के लिए कोर्ट कह नहीं सकता और यह भी संभव नहीं है कि जनता से कहे कि घर के बाहर अपनी पेंट के जिप पर ताला लगाकर रखे.  

सही है. एक प्राकृतिक जरूरत के लिए किसी को मना कैसे किया जा सकता है. हाँ उचित सुविधा मुहैया कराने पर भी कोई इनका प्रयोग न कर वातावरण को नुकसान पहुँचाता है तो उन पर कार्रवाई की जा सकती है.

आज से ठीक पचास साल पहले पिताजी ने कहा था – चलो बेटा आज तुम्हें अपना नया घर दिखा लाता हूँ. स्कूल की परीक्षाएँ पूरी हो चुकी थीं – कोई खास काम तो होता न था, सो हाँ में हाँ मिलाकर पिताजी के साथ साईकल की पिछली सीट ( कैरियर) पर बैठकर निकल पड़े.

जिस मकान में हम रहते थे, वह स्टेशन के पास था, बाजार नजदीक था. पोस्ट ऑफिस और स्कूल भी नजदीक थे. लेकिन अब हमें वहां से दूर जाना पड़ रहा था क्योंकि     दादा-दादी का हमारे यहाँ स्थिर ठिकाना जो होने वाला था. करीब 20 मिनट के साईकल सवारी के बाद हम किसी मुहल्ले में पहुँचे.. लगा मोहल्ला तो पुराना है, पर उसमें कुछ नए और बड़े मकान बनाए गए हैं और इसी बड़े मकान के लिए हमें अपने हाल के मकान को, सारी सुविधाओँ के साथ त्याग कर आना पड़ रहा था.

मुरम की सड़कें थी. पास में खेलने का मैदान भी था. घर नया तो लग ही रहा था. घर में एक बैठक, बरामदा, दो बेड रूम, किचन - बाथरूम, किचन-स्टोर तो थे ही, साथ में एक कोयला स्टोर भी था. किंतु हमारे पुराने मकान से विशेष फर्क जो था वह था - आधुनिक शौचालय. इसकी खास बात यह थी, कि किसी सफाई वाले को रोज-रोज की ड्यूटी नहीं करनी पड़ेगी. एक दिन सफाई कमचारी के न आने पर होने वाली असुविधा को आज सोचने का मन भी नहीं करता. कितने दुर्दिन थे वे,. यहाँ नए आधुनिक शौचालय में, र्शौच के बाद पानी डालने से ही सारा साफ हो जाया करेगा. हम दोंनों ने पूरे मकान में बार-बार घूम-घूम कर देखा और फिर लौट कर शौचालय तक आ जाते. मुझे यह बहुत भाया.

घर पहुंचते ही माँ ने पूछा बेटा नया मकान कैसा लगा.. मैंने बताया वह तो बड़ा और बहुत अच्छा है. इस पर फिर सवाल हुआ, सबसे बढ़िया क्या है... मैंने बताया – शौचालय. बस, सब के सब जोर जोर से ठहाके मारकर हँसने लगे. मेरी समझ में नहीं आया कि इसमें ऐसे हँसने की क्या बात है. पर सारे जी भर कर हँसते रहे.   

मेरे मन को यह बात लग गई. मुझे आभास था कि अभी के मकान में शौच के समय कितनी घिन होती थी. दरवाजा खोलते ही बदबू की बहार होती थी. नए मकान के शौचालय में न कोई गंध थी नहीं कोई मुश्किल. अंदर पानी के लिए नल भी लगा था, पर क्या करे कोई इसे समझने को तैयार ही नहीं था.

मैं खेलों के दौरान, मंडी – मार्केट वाले दिन लोगों को खुले में पेशाब करते देखता  था .. कितना गंदा लगता था. लेकिन इसका कोई उपाय भी तो नहीं था तब. खेलों के स्टेडियम में आखरी कतार में, सिनेमा हालों में एक तरफ की दीवाल के पास  बैठने को कोई तैयार ही नहीं होता था क्योंकि वहां पर पेशाब की बदबू आती थी. खाली मकान की दीवार, कोई नीरव कोना, किसी गली के बाहर का मैदान, किन्ही दो मकानों को बीच की गली ये सब मुसीबत के समय मूत्र-त्याग के काम आ जाया करते थे. तब मैं सोचता था कि ऐसे शहरों में, जहां दूरिया इतनी हैं कि कोई व्यक्ति पेशाब करने वापस घर नहीं जा सकता,  वहां सरकार मूत्रालय या कहें पेशाब-घर क्यों नहीं बनवाती. मुझे खुद बहुत पानी पीने की आदत है, सो त्याग भी करना होगा, पर स्थान की तकलीफ होती थी. खुले में सबके सामने ( भले मुँह फेरकर) करना बुरा भी लगता था. पर कई बार तो मजबूरी हो जाती थी. इसलिए इसी मजबूरी में मेरी हालत ऐसी हो गई कि किसी भी नई जगह जाने पर मेरी नजर खोजती थी कि कहीं सार्वजनिक मूत्रालय बने हैं या फिर कोई सूनसान जगह जहाँ आराम से पेशाब किया जा सकता है.खासकर उन दिनों जब टेस्ट और इंटर्व्यू के लिए शहर शहर घूमना पड़ता था . नए शहर में हर जगह सुविधा कहाँ से मिले. बहुत तकलीफ होती थी कोई वीरान कोना ढूँढने में.

कई साल बाद जब मैंने सुलभ शौचालय देखा तो जान में जान आई. भले ही शुरु में वे  15 पैसे शुल्क लिया करते थे, फिर भी यह  खुले आम पेशाब करने और वातावरण दूषित करने से कहीं अच्छा था. सोचा था कि अब सरकार को रास्ता मिल गया है और ऐसी व्यवस्था हर जगह की जाएगी .. सुलभ शौचालय संख्या में तो खैर बढ़े हैं, पर जरूरत के अनुसार अब भी बहुत ही कम हैं. किस कारण से इनके प्रयोग को बढ़ावा नहीं मिल रहा है, इसकी जानकारी किसी ने भी शायद नहीं ली... मैंने भी नहीं.

मेरी सोच में इस लत को दूर भगाने के लिए प्रस्तुतः सुलभ शौचालय हमारी मदद कर सकता है. सरकार चाहे तो इस संस्था को अनुदान दे या फिर ऐसे और संस्थान खुलवाए ताकि उनमें भी आपसी प्रतिस्पर्धा हो . लेकिन ऐसा क्यों नहीं किया गया इसकी तो मुझे चिंता है. मुझसे इसका प्रबंधन नहीं हो पाएगा यह जानकर मैंने हाथ नहीं बढ़ाया. क्योंकि हमारे देश में नियम है जो बोले सो कुंडा खोले... इसलिए बात बढ़ाता तो मेरे सर ही आनी थी.

कुछ समय पहले देखा कि कुछ शहरों में इनकी सुविधा में विस्तार हुआ है.दिल्ली , में कुछ हद तक इनकी सुविधा है. इस पर मेरे कुछ सुझाव हैं ---

  1. प्रत्येक रेल्वे स्टेशन पर इसकी भरमार सुविधा हो.. पुरुष और स्त्रियों के लिए अलग-अलग. यह प्लेटफार्म के सुदूर कोने में न होकर ऐसी जगह हों जहां जन साधारण देख सके और इस्तेमाल कर सके.
  2. मंदिरों, सभागारों, होटलों, स्कूलों - कालेजों, सभास्थलों व इत्यादि सनसंपर्क स्थलों पर इनकी सुविधा बहुतायत में उपलब्ध कराई जाए.
  3. बाजारों में, मॉल में, हाट में, होटलों में सामान्य जन साधारण के लिए या कम से कम अपने ग्राहकों के लिए इनकी सुविधा निर्बाध उपलब्ध की जाए.
  4. पेट्रोल पंपों पर, बस स्टैंडों पर, बस दिपो में, सार्वजनिक स्थलों पर  जन साधारण के लिए इनकी सुविधा उपलब्ध कराई जाए.
  5. सरकारी, अर्धसरकारी, प्राईवेट व अन्य किसी भी कार्यालय में इनकी सुविधा उपलब्ध हो और सेरे आगंतुकों के लिए यह खुले हों. राज्यमार्ग व राष्ट्रीय राजमार्गों पर जगह जगह इनकी सुविधा उपलब्ध कराई जाए की लंबी दूरी के यात्री इनका उपयोग करे और वातावरण को दूषित होने से बचाएँ.
  6. अक्सर देखा गया है कि कार्यालयों में, अस्पतालों में, होटलों मे, क्लबों में व अन्य स्थलों पर जहां जन साधारण का आना जाना लगा रहता है - शौचालय सामने लॉबी में नल होकर अंदर की तरफ होते हैं, जो जन साधारण के लिए उपलब्ध नहीं होते. इस पर किसी महकमे को ध्यान देना चाहिए.

जरा सोचिए.. इतनी जगह जहाँ सामान्यतः शौचालय होने चाहिए ... शायद होते भी हैं, पर जन साधारण के लिए उपलब्ध नही होते. यदि उनकी सुविधा जन साधारण तक पहुँचा दी जाए तो कितनी समस्या हल हो जाएगी. हाँ मैं मानता हूँ कि यह समस्या का पूरा समाधान नहीं है, पर कुछ कम भी नहीं है.

इसके साथ साथ जो दूसरी समस्याएँ उभरने वाली हैं उन का भी जिक्र कर लिया जाए.  –

सर्वप्रथम जन साधारण के दूसरे से प्राप्त सुविधा का सही इस्तेमाल करना होगा. यानि प्रयोग के बाद फ्लश करना, दरवाजा ठीक से बंद करना इन पर ध्यान देना होगा. जो लोग ऐसा करने से बचते हैं उनपर दंडनीय कार्रवाई करने की सुविधाएं  व नियम बनाए जाएं.

साफ सफाई की जिम्मेदारी तो इलाके के, कार्यालय के या फिर मॉल के प्रबंधन को लेना होगा. यह इसमें सबसे बड़ी जिम्मेदारी होगी. वहीं अनचाहे मनचलों को शौचालय की दीवारों को गंदा करने से बचना होगा वरना कानूनी प्रावधान के तहत शायद जेल की हवा का भी इंतजाम करना होगा.

रखरखाव के लिए कभी भी कोई भी यूनिट बंद करना पड़ सकता है इसलिए इसकी अतिरिक्त सुविधा पहले से ही बनाई जानी चाहिए. कोशिश की जाए कि सुविधा जन साधारण को सर्वदा उपलब्ध हो.

हो सकता है कि बाह्य उपयोगकर्ताओं से कोई शुल्क भी लिया जाए --- उस पर भी सुविधा उपलब्ध कराने से पर्यावरण में बहुत सुधार हो जाएगा. सरकार को चाहिए कि सुविधा शुल्क के साथ या बिना – पर सुविधा उपलब्ध जरूर कराने पर जोर दे.

एम.आर.अयंगर.


शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

प्रासंगिक चुनावी मुद्दे

प्रासंगिक चुनावी मुद्दे
प्रत्येक राजनीतिक चुनाव में – चाहे वह किसी भी किस्म का हो, पैसे तो जमकर खर्चे जाते हैं. मैं इसे निवेश कहना नहीं चाहूँगा. खर्चा कोई भी करे. अंततः यह सरकार पर ही तो बोझ है. सरकार को पैसा आता कहाँ से है... आम जनता से ही ना... किसी को इसकी चिंता है ?

ये जो एन जी ओ हैं, जो अपने आप को सतर्कता अधिकारी से कम तो नही समझते, क्या कर रहे हैं ? इतने सारे एन जी ओ में कितने सही मायने में सतर्क हैं ? क्या इन्हें सवाल नहीं करना चाहिए था ? अब सवाल है कि - सवाल किसलिए करना चाहिए था? सुनिए जवाब कि –

 अ.) सवाल इसलिए करना चाहिए था

  1. जब पार्टी बनाकर चुनाव लड़े जाते हैं, तब चुनावों के बाद, जनमत की अवहेलना कर, अपनी निजी उद्धार के लिए जो चुने गए प्रतिनिधि अपना दल बदलते हैं, उनके बारे में तो खुले आम कहा जा सकता है कि वे किसी भी पार्टी के मत या मंतव्य को नहीं मानते. उन्हें केवल अपनी भलाई नजर आती है. ऐसे दलबदलुओं का चयन निरस्त क्यों नहीं कर देना चाहिए? उनकी करतूतों की वजह से हुए चुनावी नुकसान की भरपाई उनसे क्यों न कराई  जाए ?  और तो और  उनके चुनाव के रद्द होने से जो चुनाव कराया जाना है, उसका खर्चा उनके सिर क्यों न मढ़ा जाए ?

  1. कुछ छोटी स्थानीय, क्षेत्रीय या राज्यीय पार्टियाँ किसी एक राष्ट्रीय पार्टी को समर्थन देकर या उससे समर्थन लेकर चुनाव लड़ती हैं और चुनाव के बाद सबसे ज्यादा सीट मिलने वाली या किसी अन्य पार्टी के साथ जुड़ जाती हैं. वैसे इसका विपरीत भी संभव है कि मंत्रिमंडल में जगह न मिलने के कारण भी पार्टियाँ समर्थन वापस ले लेती है. ऐसी हालातों में उस पार्टी के बारे में साफ तौर पर कहा जा सकता है कि उसे किसी पार्टी विशेष से कुछ लेना देना नहीं है. उसे तो अपना उल्लू सीधा करना है. जो मकसद पूरा करेगा उसे ही समर्थन दिया जाएगा. क्यों न ऐसी हालातों में उस छोटी पार्टी के चुने गए प्रतिनिधियों का चुनाव निरस्त कर दिया जाए ? तथा उस पार्टी के उम्मीदवारों के चुनाव में हुए और पुनर्निर्वाचन में होने वाले खर्चे का भुगतान करने को मजबूर किया जाए ? बात आगे बढ़ने पर पार्टी की मान्यता रद्ध करने की भी सोची जा सकती है.

  1. ऐसे उम्मीदवार भी हैं जो एक से ज्यादा जगहों पर चुनाव लड़ते हैं – मकसद कुछ भी हो – यदि कोई उम्मीदवार ऐसा करता है, तो दोनों जगह जीतने पर एक सीट खाली करनी पड़ती है. कोई भी उम्मीदवार हारने के लिए चुनाव लड़ता है ऐसा माना नहीं जा सकता, चाहे उसके जीतने की उम्मीदें कितनी भी कम हों. इसी मकसद से सुझाया जाता है कि ऐसे उम्मीदवारों से उनके नामांकन दाखिलों की संख्या से एक कम सीट पर मतदान और पुनर्मतदान का खर्चा, उनसे नामांकन के समय ही वसूला जाए. इसके लिए जरूरी हो जाएगा कि चुनावी नामांकन पत्र में इसका जिक्र हो कि वह कितने स्थानों से चुनाव नामांकन पर्चा दाखिल कर चुका हैं. चुनाव के बाद वसूलना को किसी के बस की बात नहीं होगी.
  2. कुछ निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव लड़ते हैं. यदि चुनाव के पहले उनने किसी का समर्थन लिया है या किसी को समर्थन दिया है तो उनके साथ भी  समर्थन बदलने पर मुआवजा वसूलने की कार्रवाई की जानी चाहिए. जो बिना किसी समर्थन के चुनाव जीतते हैं उन्हें तो किसी भी दल को समर्थन देने का हक होना चाहिए, क्योंकि उनने केवल अपने बूते पर ही चुनाव जीता है. हाँ यदि वे पार्टी जॉइन कर लेते हैं तो उनके साथ भी दलबदलने का कारण मुआवजा वसूलने की कार्रवाई की जानी चाहिए.

दलबदलुओं पर मेरी राय है कि वे जिस पार्टी से या के समर्थन से जीतते हैं उसमें जनता उनकी पार्टी की साख को भी सोचकर मत देती है. ऐसे में दल बदलना जनता के साथ धोखा हुआ और जनमत का निरादर – जिसको मान्य नहीं किया जा सकता.

ब.) अब आते हैं चुनावी घोषणा पत्र पर ----

  1. प्रत्येक पार्टी अपने दल का चुनावी घोषणा पत्र जाहिर करती है. लेकिन उसमें दिए गए सारे मुद्दों पर सही और समान जोर नहीं होता. कुछ पर वे खासे पक्के होते हैं, कुछ को वे करना चाहते हैं  और पूरी उम्मीद करते हैं कि कर पाएंगे, और कुछ शायद ना कर पाए. कुछ कर पाते है कुछ कर नही पाते. कुछ ऐसे मुद्दे भी होते हैं, जिनको घोषणा पत्र में रखना, किसी अन्य कारण से जरूरी होता है. पर निश्चित है कि उनका कार्यान्वयन नहीं होना है. यह तो केवल पार्टी विशेष को पता रहता है. लेकिन इसी के कारण जनता दुविधा में रहती है और पार्टी की साख के हिसाब से या तो सबको मान लेती है या सबको नकार देती है - जो सही नहीं है. पार्टियों को चाहिए कि वे अपने घोषणापत्र पर खरे उतरें और कार्यान्वय़न नहीं हो पाने की स्थिति में जनता के प्रति उत्तरदायी रहे.

  1. मुझे बहुत खुशी हुई कि भाजपा और काँग्रेस दोनों ने केजरीवाल की आप सरकार को दिल्ली में इसीलिए घेरा था कि उनने घोषणा पत्र के अनुरूप कार्य नहीं किया. मैं चाहता हूँ कि ऐसा ही सबके साथ हो और केजरीवाल की तरह सभी पार्टियाँ जवाब देने के लिए उत्तरदायी हों. समय समय पर पीठासीन व विपक्षी पार्टियों में इस बात की भी बहस होती रहनी चाहिए कि कौन सी घोषणा छूट रही है. इससे प्रतिनिधि, निधिपति न बनकर अपना काम सजगता से कर सकेंगे.

  1. हाल ही में मुख्य निर्वाचन आयोग ने एक सम्मेलन किया था जिसके तहत विभिन्न पार्टियों के प्रतिनिधियों से – घोषणा पत्र मे दिए गए मुद्दों पर कितनी जवाबदेहीपर चर्चा की थी. यदि दूरदर्शन की मानूं तो बसपा के अलावा किसी ने स्वीकार नहीं किया कि पार्टियों की कोई जवाबदारी होनी चाहिए. पर ऐसा क्यों? यदि घोषणा पत्र मे दिए मुद्दों पर जवाबदेही नहीं तो घोषणापत्र का क्या अर्थ है ..एक पत्थरों का हार ? केवल निरक्षरों और आम जनता जो इस तरफ सचेत नहीं हैं, को बहकाने का ढकोसला. वैसे साक्षर भी कितना पढ़ते हैं पार्टियों का घोषणा पत्र. उन्हें पढ़ना चाहिए. इस पर शायद निर्वाचन आयोग भी कार्रवाई कर सकता है. यदि नहीं तो समाज के प्रतिष्ठित जन इस पर जोर लगाएँ.

  1. सरकारी दफ्तरों में, सराकरी अनुदान प्राप्त संस्थाओं में, अर्धसरकारी अनुष्ठानों में, और सार्वजनिक उद्योगों में पद,  अधिकारी नहीं सेवक होना चाहिए. इन्हे अंग्रेजी में तो पब्लिक सर्वेंट कहते हैं, पर बन जाते ऑफिसर हैं. इस विडंबना को दूर करना बहुत जरूरी हो गया है. अन्यथा अधिकारियों की मानसिकता प्रभावित होती है और जनता को वे सेवक से ज्यादा कुछ समझ ही नहीं पाते.

  1. नेता अपनी उम्मीदवारी के समय सेवक बनकर आपसे मतदान की याचना करते हैं और चुने जाते ही, आप उनके सामने गिड़गिड़ाने लगते हैं. क्योकि प्रतिनिधि बनने आए उम्मीदवार को निधिपति होने का आभास हो जाता है. इस बात को खास तौर पर सोचना विचारना पड़ेगा. जरूरत के अनुसार इसे विभिन्न स्तरों पर चर्चा का विषय बनाना होगा और निर्णय लेना होगा कि जनता इन प्रतिनिधियों को निधिपति का रूप धारण न करने दे.  इसके लिए उपरोक्त में से कोई नहीं (None of the above - NOTA ) और वापस बुलाने का अधिकार (authority to call back) भी जनता को मिलना चाहिए. जिसके लिए बुद्धजीवियों को आगे आना होगा.
स.) अब कुछ अन्य मसलों पर आएँ –

चुनाव में हर पार्टी अपने अपने ध्येय, घोषणापत्र और अंतर्मन लिए आते हैं. छोटी पार्टियां कभी कभी बड़ी पार्टियों को समर्थन देती है तो कभी समर्थन लेती है. निर्दलीय कभी पहले से जुड़ जाते हैं तो कभी चुनाव के बाद. फिर कभी कभी गठबंधन भी  अंततः होता है. एक पार्टी या गठबंधन पीठसीन होता है और दूसरी विपक्षी पार्टी. निर्दलीय अलग थलग बच जाते हैं जो मुद्दों पर अपना समर्थन या विरोध प्रदर्शित करते हैं.

मेरी राय है कि गठबंधन के समय सारी पार्टियाँ (यह प्रमुख पार्टी की जिम्मेदारी होनी चाहिए) मिल बैठ कर अपने अपने घोषणा पत्र की चर्चा कर लें और फिर गठबंधन का एक घोषणा पत्र तैयार करें, जिसमें मुद्दों को उनकी प्राथमिकता की श्रेणी में रखा जाए. तत्पश्चात संसद         (सम्मिलित लोकसभा एवं राज्यसभा) में या फिर विधानसभा एवं विधान परिषद में, जैसी स्थिति हो उसकी पुनर्चर्चा होनी चाहिए जिससे हमारी संसद या सभाओं की प्राथमिकताएं आम जनता तक पहुँचे. इससे ज्यादा सम्मत मुद्दों पर कार्रवाई हो सकेगी.

इस कार्यविधि के बाद प्रत्यक्ष रूप से पीठासीन पार्टी यानि सरकार और  अप्रत्यक्ष रूप से सारी संसद जनता के प्रति जवाबदेह होगी, कि मुद्दों का कार्यान्वयन क्यों नहीं हो सका. ऐसी सूरत में ही प्रतिनिधियों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होगा और देश की प्रगति में प्रतिनिधि नहीं सारी जनता भागीदार होगी. दिशा निर्देशन में भी जनता की भागीदारी होगी. हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी का एहसास हुआ करेगा. कोई प्रतिनिधि निधि पति बनने की सोच नहीं पाएगा.
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एम.आर. अयंगर.


सोमवार, 7 अप्रैल 2014

मैंने सीखा.

मैंने सीखा...
कुछ छोटी छोटी बातें अक्सर छूट जाती हैं जिंदगी में. जिनका जीवन पर बहुत ही गहरा असर होता है. ऐसी ही एक बात मैंने अपने बुजुर्गों से सीखा है और सच माने इसका मुझे बहुत ही लाभ हुआ है. शायद आप भी इसका लाभ पाएं... वंचित न रह जाएं, इसीलिए साझा कर रहा हूँ...

मेरे बुजुर्गं ने सिखाया है कि साधारणतया बिना बुलाए कहीं भी जाना नहीं चाहिए. यह जिंदगी का पहला उसूल होना चाहिए. जैसे किसी के घर खुशी का जलसा मनाया जा रहा है और वह आपका बहुत ही अजीज भी है. लेकिन किसी कारण से आपको वहाँ का न्यौता नहीं है.. तो वहाँ नहीं जाना चाहिए. आप सोच सकते हैं कि बेचारे भले दोस्त, रिश्तेदार से भूल – चूक हो गई होगी. यदि आपको इतना विश्वास है, तो ठीक है हो आईए. लेकिन खुदा न खास्ता नहीं बुलाने का कोई विशेष कारण हो तो... आपकी किरकिरी हो सकती है. दोस्त के लिए आपको वहाँ यह सहना पड़ेगा . उसके पास तो पूरा इंतजाम है कहने का कि यार इसी डर से मैंने तुम्हें बुलाया भी नहीँ था. क्या करें तुमने आना उचित समझा और ऐसा हो गया... इसमें मेरा क्या दोष.. लेकिन आप तो किरकिरी को न ही भूल पाओगे और न ही अपने दोस्त को माफ कर पाओगे. जबकि दोस्त की कोई गलती है ही नहीं.. सारी आपकी अपनी सोच के कारण घटी है.

लेकिन इसके भी अपवाद हैं. ऐसी जगहें भी हैं जहाँ बुलाने पर भी नहीं जाना चाहिए. आप  कहेंगे क्यो भई ? तो सुनिए.. यदि कहीं मद्यपान का प्रोग्राम बन रहा हो कि कोई फ्री फँड पार्टी दे रहा हो या फिर जुएँ का मजमा लग रहा हो या फिर कोई कुकर्म करने की प्लानिंग हो रही हो - तो अच्छा है कि न्यौते के बाद भी वहां न जाएँ. इसमें शामिल होने से कुछ मिलना तो है नहीं पर लुटेगा जरूर. हो सकता है पुलिस के चक्कर में पड़ जाएं या फिर आपकी इज्जत ही उछल जाए.. नशे के दौर में कौन क्या कर बैठेगा – अभी साफ हालत में कहना मुश्किल ही होता है.

दूसरा अपवाद ऐसा भी है कि कुछेक जगहों पर बिना बुलाए ही जाना होता है. वहां न्यौते का इंतजार नहीं करना चाहिए. जैसे किसी के घर कोई बहुत बीमार है और सेवादार कोई नहीं है. तो ऐसी हालातों में सारी दुश्मनियाँ भूल कर  उसकी सेवा में जाना चाहिए. हो सकता है दुश्मनी की वजह से आपको वहां बेइज्जत होना पड़े .. इसके बावजूद भी आपको वहां जाना चाहिए, क्यों कि  सेवा मानवता का पहला धर्म है. रिश्ते, दोस्त और बाकी सब बाद में आते हैं. या फिर कही मातम मन रहा हो तो भागीदारी वहाँ जाकर जरूर निभानी चाहिए. इसके लिए सोचने की आवश्यकता नहीं होती.

आप किसी के घर मुंडन, शादी या गृहप्रवेश में न जा पाएं, तो एक बार पूछ लिया जाएगा. बहुत ही नजदीक न होने पर कोई बुरा भी नहीं मानेगा. किसी के दुख में शामिल न होने पर कोई सवालात तो नहीं करेगा, पर मन ही मन आपके प्रति एक विचार स्थापित कर लेगा, कि यह व्यक्ति जरूरत पर साथ नहीं देगा. आपको खबर भी नहीं पड़ेगी कि आपका स्तर नीचे आँका गया है. भले ही सुख बाँटने ना जाओ पर गम-दुख बाँटने में कभी पीछे नहीं रहना चाहिए

ये है तीन नियमों का एक सेट.- जो मैंने अपने बुजुर्गों से पाया है. अब आप देखें समझें और सुझाएं आपकी क्या राय है.

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एम.आर.अयंगर.

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

साक्षर और अनपढ़



साक्षर और अनपढ़


मैंने कल अपने पिछले पोस्ट-मतदान या मताधिकार - में लिखा था --

"हाल ही में मैंने एक कविता पढ़ी है – जिसमें इसका बहुत ही बढ़िया वर्णन किया गया है. इस आशय के साथ अगले पोस्ट में संलग्न कर रहा हूँ कि इसके रचयिता को कोई आपत्ति नहीं होगी. (इसालिए इसके तुरंत बाद ही मेरी अगली पोस्ट होगी.)"

लीजिए प्रस्तुत है वह कविता... मैं यहाँ फिर से स्पष्ट कर दूँ कि यह कविता मेरी रचित नहीं है और किसी दोस्त से मेल में मिली है, पर है बहुत ही बढ़िया, जो बताती है कि - साक्षरता और व्यावहारिकता - किस तरह से भिन्न हैं और किसका वजूद कैसा है...
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मेरी अनपढ़ माँ वास्तव में अनपढ़ नहीं है

चूल्हे-चौके में व्यस्त और पाठशाला से दूर रही माँ
नहीं बता सकती कि नौ-बाई-चारकी कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार मेंलेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल और घन का घनत्व निकालना उसके शब्दों में स्यापाहै
क्योंकि उसने मेरी छाती को ऊनी धागे के फन्दों और सिलाइयों की मोटाई से नापा है

वह नहीं समझ सकती कि को सीबनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता हैलेकिन अच्छी तरह समझती है कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए कौन सा फॉर्मूला अपनाना होता है।

मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं और नाप-तौल कर ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी मेंउसने तो केवल ख़ुश्बू सूंघकर बता दिया है
कि कितनी क़सर बाकी है बाजरे की खिचड़ी में।

घर की कुल आमदनी के हिसाब से उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों, घर की आमदनी और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया हैलेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिद्धान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।

वह नहीं जानती सुर-ताल का संगम ..
कर्कश, मृदु और पंचम, सरगम के सात स्वर स्थाई और अन्तरे का अन्तर
….स्वर साधना के लिए वह संगीत का कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
लेकिन फिर भी मुझे उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुग़ल और मंगोल कौन थे, कहाँ से आए थे
उसने नहीं जाना कि कौन-सी जाति भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है कि बुआ हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई कि चुनाव में किस पार्टी के निशान पर मुहर लगानी है 
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है कि किसके यहाँ दीपावली पर कौन-सी साड़ी जानी है।

मेरी अनपढ़ माँ वास्तव में अनपढ़ नहीं है वह बातचीत के दौरान पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप बात की दिशा मोड़ सकती है
झगड़े की सम्भावनाओं को भाँप कर कोई भी बात ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ सकती है

दर्द होने पर हल्दी के साथ दूध पिला पूरे देह का पीड़ा को मार देती है
और नज़र लगने पर सरसों के तेल में रूई की बाती भिगो नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुश्बू से सुबह-शाम सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी परिवार तो रात को थक कर सो जाता है
लेकिन वो सारा दिन काम करके भी परिवार की चिन्ता में रात भर सो नहीं पाती है।

सच! कोई भी माँ अनपढ़ नहीं होती सयानी होती है
क्योंकि ढेर सारी डिग्रियाँ बटोरने के बावजूद बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है कि गृहस्थी कैसे चलानी होती है।


संकलक.. अयंगर.

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

मतदान या मताधिकार ?????


मतदान या मताधिकार  ?????

सन 1952 से, यानि जब से भारत का संविधान ईजाद हुआ है, हमारे राष्ट्र में चुनाव होते आए हैं. वैसे तो हर पाँच सालों में चुनाव होने चाहिए. पर किन्हीं अपरिहार्य कारणों से इससे परे भी हुआ है. सरकार से समर्थक दलों के समर्थन वापस लेने के कारण भी सरकार गिरि है. फलस्वरूप चुनाव हुए हैं. हर बार भारत के नागरिक मतदान करते है और चुने हुए साँसद (लोकसभा के परिप्रेक्ष्य में) मिलकर सरकार का गठन करते हैं. जिस पार्टी के नेता ज्यादा समर्थन जुटा लेते हैं उनकी सरकार होती है. वे आपस में प्रधानमंत्री और अन्य महकमों के मंत्री , उपमंत्री, राज्यमंत्री जैसे पद तय करते हैं - जो प्रधानमंत्री के प्रति जिम्मेदार होते हैं और प्रधानमंत्री देश की जनता के प्रति.

यह तो हुई किताबों की बातें – लेकिन धरातल पर हालात कुछ और ही हैं. चुने जाने के बाद सांसदों को जिम्मेदारी का आभास धीरे धीरे कम होने लगा है और आज के परिप्रेक्ष्य में यदि कहा जाए कि सांसदों को जिम्मेदारी का आभास नहीं है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. गिनती के ही कुछ साँसद बचे होंगे, जो अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वाह करते हैं. अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व वे केवल वोट बटोरने के लिए करते हैं तत्पश्चात् पूरे पाँच बरस बाद नजर आते हैं - ऐसे कई हैं. पर भारत की भोली भाली जनता उनका पंचवर्षीय तोहफा पाकर फिर मत उन्हें ही दान कर देती है.

हम कहते हैं कि भारत में साक्षरता बढ़ी है... मुझे तो लगता है कि साक्षर होने की अर्हता घटाकर साक्षरता के आँकड़ों में वृद्धि की गई है. जैसे यमुना के खतरनाक स्तर के निशान को ऊपर कर कह दिया हो कि यमुना जो कल खतरे के निशान से 4 मीटर ऊपर बह रही थी आज केवल दो मीटर ऊपर है. जनता सोचती है कि जल स्तर घटा है, लेकिन वास्तविकता यह होती है कि जल स्तर घटा नहीं बल्कि निशान ऊपर उठ गया है.

साक्षरता और लोक व्यवहार की क्षमता में जमीन आसमान का फर्क होता है.. हमारे बुजुर्ग साक्षरता में हमसे आगे हों या न हों पर लोक व्यवहारमें हमसे कहीं आगे रहते हैं. हाल ही में मैंने एक कविता पढ़ी है – जिसमें इसका बहुत ही बढ़िया वर्णन किया गया है. इस आशय के साथ अगले पोस्ट में संलग्न कर रहा हूँ कि इसके रचयिता को कोई आपत्ति नहीं होगी. (इसालिए इसके तुरंत बाद ही मेरी अगली पोस्ट होगी.)

केवल यही बात, कि आज भी हम मतदान करते हैं बताता है कि हम कितने व्यावहारिक हैं, जबकि हमें मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए. मतदान नहीं करना चाहिए. दान के नाम पर हम तो अपना अधिकार खैरात में बाँट रहे हैं. हमें अधिकारिक तौर पर निर्णय लेना है कि कौन सा व्यक्ति समाज के लिए उपयुक्त है. आप जिस व्यक्ति को चुन रहे हैं वह आप लोंगों के भले के लिए कितना काम करेगा या साथ देगा. आप लोंगों की समस्याओं को ऊपर तक ले जाएगा या फिर चुने जाने के बाद मुँह फेर लेगा. यदि चुना हुआ व्यक्ति आपका साथ नहीं देता तो इसके लिए जिम्मेदार आप भी हैं. कुछ नहहीं तो कम से कम अगले चुनाव में सबक सिखाना भी आपका ही कर्तव्य बनता है.

साक्षरता और व्यावहारिकता की बात इसलिए कर रहा हूँ कि मताधिकार के प्रयोग के लिए व्यावहारिकता की भी जरूरत है, बनिस्पत कि केवल साक्षरता की. व्यावहारिकता में बुजुर्ग माहिर हैं. यदि आज के साक्षर कल के व्यावहारिक बुजुर्गों के साथ बैठ कर तय करें, तो दोनों के मेल मिलाप से बहुत ही बढ़िया समाधान पाया जा सकता है कि कौन हमारे लिए उपयुक्त है.

ध्यान रहे कि संविधान के तहत भी मत हमारा अधिकार है और मताधिकार का प्रयोग देश के प्रति हमारा कर्तव्य भी. इसलिए सोच समझ कर समय, वक्त एवं हालात के मद्देनजर हम अपने मताधिकार का सही प्रयोग करें – तो देश को एक अच्छी सरकार दे सकते हैं जो देश के नागरिकों की भलाई के लिए सोचे और काम करे.

लोगों के झांसे मे आकर मूल्यवान वस्तु के बदले अपना अमूल्य मत बरबाद ना करें. मदिरा, पैसे, तोहफे इत्यादि तो बार बार आते रहेंगे. इनकी उपयोगिता तो मर्यादित है, जो आपके निजी काम के लिए है..  अपने एक के स्वार्थ के लिए देश का अहित ना करें. देशहित को सर्वोपरि रखें एवं जनसामान्य के फायदे का काम करें. यदि मताधिकार का सही प्रयोग कर सही सरकार आई तो सारे देश के नागरिकों का फायदा होगा और देश भी उन्नति करेगा.

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एम.आर.अयंगर.

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