शुक्रवार, 14 मार्च 2014

बेरोजगारी --- हमारा नजरिया.

बेरोजगारी --- हमारा नजरिया.

देश में बेरोजगारी की समस्या आजादी के दिन से ही है. तरह तरह के 

प्रयासों से नौकरियों में बढ़ोत्तरी की गई, पर अंततः वे जनसंख्या वृद्धि की 


दर से कम ही रह गए. फलस्वरूप बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई और आज देश के सामने एक विशाल व गंभीर समस्या बनकर खड़ी हो गई है.

 गरीबी और बेरोजगारी का काफी निकट संबध है... करीब करीब सारे बेरोजगार गरीब हैं. कम ही ऐसे हैं जो बेरोजगार इसलिए हैं कि पूर्वजों ने इतना कमा लिया है कि बैठकर खाने पर भी काम चल जाएगा. इसके बावजूद भी आती कमाई को कौन छोड़ना चाहेगा. कम है, फिर भी कुछ तो हैं. किंतु मैं उन्हें बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं मानता क्योंकि वे रोजगार पाना ही नहीं चाहते.

 बेरोजगारी पर सबसे बड़ी पहल औद्योगीकरण है. कई नए नए उद्योग खुले. इसी उद्देश्य से सरकार ने भी सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किए. नेहरू जी ने तो इन्हें औद्योगिक मंदिर कहा. इसे थोक में बेरोजगारी कम करने की कवायद कही गई. कई ऐसे औद्योगिक घरानों ने निजि व साझेदारी के उपक्रम भी शुरु किए. लेकिन थोक का यह अंदाजा शायद सही नहीं बैठा और हम रोजगार उपजाने में जनसंख्या वृद्धि की बराबरी नहीं कर सके. इसी कारण इतने उद्योगों के आने के बाद भी बेरोजगारी अपना मुँह बाए खड़ी है ... हमारे प्रयासों का अट्टहास करते हुए.

 कई दुकानदारों के आश्रितों ने, जो पापा-ताऊ-दादा की दुकान सँभाल रहे हैं, अपना नाम बेरोजगारों में लिखा रखा है... बेरोजगार तो उन्हें कहना चाहिए - जो 18 की वय से ऊपर हैं और 60 की वय से कम हैं, नौकरी पाना चाहते हैं और बिना नौकरी के हैं. एक 16 साल का बालक पढ़ाई छोड़ कर बेरोजगार नहीं कहला सकता क्योंकि यह बाल मजदूरी कहलाएगी और वैसे ही एक 65 साल का बुजुर्ग (रिटायरमेंट की वय से बड़े) बेरोजगार नहीं कहला सकता. यह कानूनी तो अपराध नहीं है पर वे रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुके हैं. इनको भी मैं बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं मानता.
 चलिए अब करें कुछ काम की बात. देश में नौकरियाँ जो बढ़ी हैं उनके बारे में. किसी महकमें में माना 10 पद हैं. हर पद के अपने अपने काम तय हैं. हर पद का कर्मचारी उस पद के अनुसार जिम्मेदारी निभाता है  पदानुसार आवश्यक कार्य निष्पादित करता है और तनख्वाह पाता है.

 अब नौकरियों की संख्या बढ़ाने के लिए नए उद्योग चाहिए जो आवश्यकतानुसार उपलब्ध नहीं हैं. इसके कई कारण हैं. उन पर हम बाद में जाएंगे. जहाँ नए उद्योगों की भर्ती के बाद भी लोग बेरोजगार रह गए तो हमने 10 पदों को तोड़कर 25 कर दिए. इससे पद संख्या बढी. उस पर हमने बेरोजगारों को नौकरी देकर तैनात कर दिया. पद के अनुसार सब को तनख्वाह भी दी जानी है. इसकी वजह से 10 पदों पर कार्यरत कर्मचारी का काम अब 25 पदों पर कार्यरत कर्मचारी कर रहे हैं ... मतलब... जो काम 10 लोगों को तनख्वाह देकर हो सकता था अब 25 को तनख्वाह देकर करवा रहे हैं. यानि लोगों का काम कम कर दिया पर तनख्वाह नहीं. तिस पर भी मँहगाई की मार के कारण तनख्वाह बढ़ाने की बात होती है और कई जगहों पर सरकार ने माना भी है. सरकार की तो यह मजबूरी है क्योंकि नौकरियाँ उपलब्ध कराई नहीं जा सकीं तो इस तरह से काम चलाया जा रहा है. 

नौकरियों को टुकड़ों में बाँटने का खेल केवल सरकारी महकमों में खेला जा रहा है . इसलिए निजू व सहकारी संस्थानों में उत्पादकता घटी नहीं है. वे ज्यादा पगार दे पा रहे हैं और काम भी घिस कर ले रहे हैं. अब ऐसी हालातों में सरकारी उद्यमों का निजी या सहकारी उद्यमों से तुलना करना कितना उचित है यबह आप सोचें.

 एक और उदाहरण है मनरेगा का. जिसमें मशीन से जल्दी होने वाले काम को मजदूरों से कराया जा रहा है ताकि रोजगार के साधन बढ़ें. लेकिन यह सोचा नहीं जा रहा है कि मशीनों से काम होने दिया जाए एवं इन बेरोजगारों के लिए नए उद्योंगो से नौकरियां बढ़ाई जाए.

 ऐसा कर हम अपनी उत्पादकता कम कर रहे हैं. देश में जो काम कम खर्चे में हो सकता है, वही काम ज्यादा पैसों से हो रहा है. उत्पादकता कम होगी तो चीजों की कीमतें बढ़ेगी .. यानि मँहगाई बढ़ती जाएगी.

 अब बात आती है नए उद्योगों से नौकरियाँ बढ़ाने की. उद्योग जब देश की जरूरत है, तब सरकार को चाहिए कि आवश्यकता अनुसार सुविधाएं भी उपलब्ध कराए जाएं. लेकिन हमारी सरकार के रवैये ने उद्योगपतियों के नाक में दम कर रखा है... सुविधाएँ तो दूर, कर भी भरमार होते हैं इनके अलावा जो सामाजिक बीमारियाँ हैं सो तो हैं. जब उद्योगों के लिए उचित माहौल मिलेगा तब उद्योगपति भी इस तरफ झुकेंगे. हाल ही का उदाहरण है ...टाटा की नेनो फेक्टरी. बंगाल में सरकार ने साथ नहीं दिया... नखरे दिखाए... लाल पताका जिंदाबाद हुआ. टाटा दुखी हो गए . मौका पाते ही गुजरात से मोदी ने हाथ बढ़ाया. संपर्क साधा ...ताल मेल बैठाकर सुविधाएँ मुहैया कराईँ और साल भर में नेनों गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी. टाटा का भी नाम हुआ और मोदी का भी. ऐसे रवैये की वजह से ही गुजरात फल फूल रहा है. वहाँ के व्यापार व उद्योग दिन दूनी व रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं. इतना कि आज मोदी को देश में प्रधानमंत्री पद के सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के रूप में आँका जा रहा है.

 बंदरगाह, सड़क, पानी एवं इलेक्ट्रानिक सुविधाओं के साथ गुजरात को मोदी ने इतना उपयुक्त बना दिया है कि सारे उद्योगपति , ( देश के ही नहीं परदेशों के भी) उनकी तरफ नजर गड़ाए खड़े हैं कब मौका मिले और कब कारखाना खोला जाए. अभी सुजुकी भी मारुती से संबंध छोड़कर गुजरात में कारखाना खोलने की सोच रही है ... ऐसा क्यों ...

 इस बात पर चर्चा होनी चाहिए और अच्छाईयाँ पूरे देश में अपनाए जाने चाहिए. उद्योगपतियों को उचित सुविधा मुहैया कराई जानी चाहिए एवं इनके बदले उन्हें सामाजिक जिम्मेदारियों से अवगत कराना चाहिए. हमारे यहां दूसरी समस्या यह है कि सामाजिक व राष्ट्रीय किसी का नहीं होता, न ही इसकी जिम्मेदारी किसी की होती है. आप जितना चाहे सरकारी दोहन कर लो , अधिकारी खुश हैं तो सब दबा रह जाएगा..  

 जब देश में सारे नेताओं को जनता का ही भला करना है तब चुने गए प्रतिनिधि अपनी पार्टी से परे आकर – जनता की भलाई के कार्यक्रम का मसौदा तैयार क्यों नहीं करते और उन पर तौर तरीकों से अमल क्यों नहीं करतो... केवल इसलिए कि जनता की सेवा का बात महज दिखावा है. सेवा तो सब खुदकी करना चाहते हैं.

 अब बहुत देर हो चुकी है. जनसंख्या पर नियंत्रण तो हो नहीं पा रहा है. बेरोजगारी पर नियंत्रण करना मुनासिब नहीं समझते. फलतः मँहगाई बढ़ रही है. य़दि और देर की गई तो शायद हालातत काबू से बाहर हो जाएंगे.

लक्ष्मीरंगम.

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