सोमवार, 10 मार्च 2014

ई- सुविधा.

ई - सुविधा

कल मैंनें बैंक में रुपए लेने के लिए चेक दिया. पता लगा लिंक फेल है. कब आएगा कोई पता नहीं है. सारे बैंक में लोगों की भीड़ लगी है और सबको एक ही इंतजार है. लिंक कब आएगा.

सोचा यह क्या तमाशा है ... जब नेट बैंकिंग नहीं था, तब भी तो बैंक चलते थे. तो अब क्यों बंद हो गया है. अच्छा है कि हम तकनीकी तौर पर काफी आगे बढ़ गए हैं. अब तकनीकी के बिना काम हो ही नहीं पाता. शायद यही सोच हमें आलसी बना जाती है. जितना काम पहले बिना नेट बैंकिंग के होता था, वह भी आज नहीं हो पाता – यदि लिंक फेल हो गया हो तो. हम तकनीकी तकलीफ को झेल जाते हैं.

ऐसी ही मुसीबत है रेल्वे स्टेशनों पर आरक्षित टिकट बुक करने में. – लिंक फेल हो गया तो कीजिए इंतजार - जब तक न आए – कब आएगा भगवान ही जानता होगा. इस बीच, और जगह जहाँ लिंक ठीक है, वहाँ से टिकट बुक हो रहे होंगे. जब यहाँ लिंक आएगा, तब केवल वेइटिंग लिस्ट टिकट ही मिलेंगे. इसकी वजह से जो तकलीफ हुई, जो नुकसान हुआ उसका जिम्मेदार कौन. कोई शादी में नहीं पहुँच पाया तो कोई मातम में नहीं पहुँच पाया. किसी की फ्लाईट छूट गई, तो किसी का इंटर्व्यू छूट गया. किसी को कुछ नहीं पड़ी है. इस पर कोई पी आई एल लगाकर देखना पड़ेगा कि न्यायालय क्या कहना चाहेगा.

बैंक में भी अपने बैंक खाते से पैसे देने में क्या संकोच है. एंट्री तो बाद में भी की जा सकती है. दूसरे बैंक से संबंध टूट गया है पर अपने बैंक के सारे हिसाब तो अपने ही पास हैं. बैंक ट्राँसफर के भी आवेदन ले सकते हैं और ट्रांसफर भी बाद में किया जा सकता है. लेकिन कौन करेगा. बढ़िया आराम से बैठो, जब लिंक आएगा तब तक. यदि आवेदन रख लिया जाए तो ग्राहकों को फिर बैंक आने की जरूरत नहीं पड़ेगी. कई ग्राहक ऐसे होंगे जो दूर से आ रहे हैं और फिर नहीं  सकते या किसी काम की वजह से बाहर जाना चाहते हैं. उनके लिए कम से कम सुविधा तो दी ही जा सकती है. लेकिन सुविधाओं ने हमें उनका गुलाम बना लिया है या यों कहिए कि हम सुविधाओं के गुलाम हो गए हैं. सुविधा एक बार मिल गई तो बिना सुविधा के किया जाने वाला काम तो होगा ही नहीं. सुविधा दीजिए फिर काम की बात कीजिए. यही समस्याएं है, जहाँ कहीं भी इलेक्ट्रॉनिक   सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं.


हमारे कार्यालय में भी ऐसा ही हुआ. अग्निशमन के पानी के लिए एंजिन, डीजल से चलता है. उसकी टंकी में 200 लीटर डीजल भरा जा सकता है. ज्यादा देर चलने पर टंकी में डीजल भरते रहना पड़ता है. इसके बार बार के झंझट से मुक्ति पाने के लिए  ऑटोमेशन किया गया. यानी डीजल कम होने पर पंप अपने आप चलकर टंकी में डीजल भर देता है और भरने पर अपने आप बंद हो जाता है. अब मजदूरों को तेल भरने की जरूरत नहीं है.

एक बार अग्निशमन ट्रायल के समय पानी बंद हो गया. सबकी किरकिरी हो गई. जाँच से पता लगा कि फायर फायटिंग एंजिन के टंकी में डीजल नहीं है. कारण बहुत देर से बिजली नहीं है और बैटरी डिस्टार्ज हो गई है. इसलिए ऑटोमेशन का सोलेनॉइड वाल्व काम नहीं किया. फलस्वरूप डीजल नहीं भर पाया. फिर बात आई कि फिर मजदूरों से क्यों नहीं भरवाया गया. तब कहीं जाकर पता चला कि ऑटोमेशन के दौरान मजदूरों से तेल भरने की सुविधा खत्म कर दी गई है.

पहले जब मोटर सायकिल या कार नहीं होती थी तब कितने किलोमीटर पैदल चले जाते थे. सायकिल आई तो चलना कम हो गया और बिन सयकिल के अब ज्यादा चला नहीं जाता. बाद में मोटर सायकिल आई तो बिना मोटर सायकिल के अब ज्यादा दूर जाया नही जाता. अब कार आ गई है तो दो चार किलोमीटर से ज्यादा जाना हो तो कार चाहिए. कार में प्रोब्लेम है तो ठीक होने पर जाएंगे. अन्यथा टेक्सी कर लेंगे पर मोटर सायकिल या सायकिल से जाना संभव नहीं होता.

हुई ना वही बात कि वाशिंग मशीन आने से पहले कपड़े हाथ से बाथरूम में धुल जाया करते थे. अब वाशिंग मशीन आ गई है सो हाथ से कपड़े धोने की जरूरत नहीं होती. अच्छा है आराम से काम हो जाता हैं. लेकिन जब बिजली बंद हो जाए या वाशिंग मशीन में कोई खराबी आ जाए तो, हाथ से कपड़े नहीं धुल सकते . अब बिजली आने पर ही कपड़े धुलेंगे या कपड़े लाँड्री से धुल कर आएँगे.

बंग भाषा के वर्णाक्षरों के सूत्रधार डॉ. ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी के बारे सुना है कि वे पाठ पूरा करने के बाद किताब से पृष्ठ ही फाड़ दिया करते थे. पर उन्हें पुराना पाठ हमेशा के लिए याद रहता था. एक यह जमाना है कि सुविधा मिली तो पुराना तरीका बंद ही कर दिया भले मिली हुई सुविधा बंद ही हो गई हो. यानी कि चम्मच से खाना सीख लिया तो उंगलियाँ केवल चम्मच पकड़ने का काम करेंगी. चम्मच न मिलने पर भी हाथ से खाना नहीं खाया जाएगा. संभवतः चम्मच से खाना सीखने पर बाकी उंगलियाँ काट ली जाएंगी. यानि आगे पाठ  पीछे सपाट.

अब लोग बताएं ऑटोमेशन हमारे लिए वरदान है या अभिशाप...


अयंगर

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