शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

युद्ध स्तर पर..

युद्ध स्तर पर


हाल की दो घटनाओं ने जैसे झकझोर कर रख दिया. क्रिकेट मैदान में चोट लगने से दो क्रिकेट की हस्तियाँ जान गँवा बैठीं.

हाल ही में क्रिकेट ने दो जानें ले ली. एक खिलाड़ी (फिल ह्यूज) की और दूसरा एक इसरायली अंपायर की. दोनों की जान गर्दन से ऊपर गेंद लगने से गई.

पहली घटना मे खिलाड़ी को बाउंसर गर्दन के ऊपर लगा  और उसके ब्रेन में नस फट गई यानी ब्रेन हेमोरोज हो गया. डाक्टरी उपचार के दौरान उसके प्राण पखेरू उड़ गए.

दूसरी घटना में लेग पर खड़े अंपायर को बेट्समेन की स्ट्रोक मारी हुई गेंद लगी और उपचार के दौरान वे भी चल बसे.

माना दोनों घटनाएं अनहोनी के दायरे में आती हैं किंतु अनहोनी की पुनरावृत्ति इतने कम समय में होना भी तो एक अनहोनी ही है.

कभी जब विवियन रिचर्ड, रोहन कन्हाई, गेरी सोबर्स, पीटर पोलक, ग्रेम पोलक, एडी बार्लो के खेल को देखते या सुनते थे (तब टी वी भारत में नहीं आया था). तो खेल में कितनी सफाई से तेज गेंद को दिशा देकर चौके छक्के लगाए जाते थे, ब्रेडमेन को देखने सुनने का मौका नहीं मिला केवल पढ़ा है और कुछ पुराने रिप्ले जो टी वी में आए देखे हैं. इस बात पर चर्चा होती थी. किसने कितनी आसानी से छक्का मारा या गेंद को चौके के लिए दिशा दी, इस पर भी चर्चा होती थी. वैसे ही भारतीयों में दिलीप सरदेसाई, एकनाथ सोलकर, आबिद अली, अजीत वाडेकर, गुंडप्पा विश्वनाथ, सुनील गवास्कर व अन्यों के खेल में भी नजर आता था.  गेंदबाजी में बिशन सिंह बेदी की निगेटिव बॉलिंग ( जो रन न बनाने दे), चंद्रशेखर की गुगलियाँ आज भी याद आती हैं. तब किसी बेट्समेन द्वारा ऑप साईड की बॉल को लेग साईड में मारने से या गलती से चले जाने से बड़ी आलोचना होती थी अब तो यह भी एक खास स्ट्रोक बन गया गहै – जैसे रिवर्स स्वीप.. गजब.

धीरे धीरे खेल में तकनीक पाछे रह गई और ताकत सामने आ गई. शरीर-सौष्ठव का प्रयोग -- कितनी जोर से मारा या कितनी तेज गेंद फेंका से नापी जाने लगी है. फलाँ मीटर लंबा छक्का मारा का रिकार्ड बन रहा है. माईकल होल्डिंग, एंडी रॉबर्ट, जॉन स्नो... इत्यादि तेज गेंदबाजों के समय से गेंद की गति एक खास आँकड़ा बन गई. स्वाभाविक तौर पर पहले पहल तेज गेंदबाजों को ज्यादा विकेट मिलने लगे ,. हो सकता है उन दिनों खिलाड़ियों को भी डर लगता था. धीरे धीरे यब बॉड़ी लाइन बॉलिंग का रूप धारण कर गई. खिलाड़ी अपने को बचाएगा या खेलेगा. अब खेलने के लिए दुनियाँ भर के आग- रक्षक पहनने पड़ रहे हैं. पहले लोग बिना हेलमेट के खेलते थे. अब हाल देखिए.. हेलमेट पहन कर भी गेंद की चोट से मारा गया.

यह बात बिलकुल सही ही है कि किसी भी खेल में जीतने की तैयारियाँ युद्ध स्तर पर होनी चाहिए. लेकिन आज युद्ध स्तर की तैयारियाँ नहीं, युद्ध ही हो रहा है. शारीरिक बल के कारण खेल का मुखौटा ही बदल गया है. भारतीय हॉकी की कद्र अब कितनी है, सो देख लीजिए. तब के पेले, ध्यानचंद, डॉन ब्रेडमेन, डियागो मेराडोना के खेल की तुलना आज के लारा, सचिन जयसर्या से क्या करें. जैसे 1950 में मेटर्रिक पास की अंग्रेजी या हिंदी भाषा में पकड़ आज के एम ए से बेहतर है उसी तरह पुराने खिलाडियों का खेल आज के खिलाड़ियों से बेहतर है. मेरी राय में दोनों की तुलना करना न्यायसंगत ही नहीं है.

क्रिकेट ही नहीं हर खेल का यही हाल है. मेराडोना और पेले के खेल से तुलना कीजिए, आज के खिलाड़ियों की. एक के पास तकनीक थी दूसरे के पास ताकत और दम (स्टेमिना) है. खेलों की तासीर ही बदल गई है.  पहले शारिरिक सौष्ठव बनाए रखने के लिए केल खेले जाते थे अब खेल खेलने के लिए शारीरिक सौष्ठव बनाया जाता है.

इस पर भी ब्रॉयन लारा और सहवाग जैसे खिलाड़ी (कभी इसी तरह चोटिल हुए अंशुमन गायकवाड़ भी) आज भी कह रहे हैं कि यदि क्रिकेट से बाउंसर हटा दिए गए तो खेल का मजा खत्म हो जाएगा. बाउंसर खत्म हो या न हो बात अलग है किंतु अब लोगों को इस बात का एहसास हो जाना चाहिए कि खेल में शारीरिक बल. दम के कारण जो तकनीकी गिरावट आई है उससे खेलों को बहुत नुकसान हुआ है. खेल में खेल भावना भी उतनी ही जरूरी है जितना युद्ध स्तर की तैयारियाँ. आज यदि भारत – पाक का कोई भी मैच हो – भावनाओं के तेवर इतने बढ़ जाते हैं जैसे भारत पाक में युद्ध छिड़ गया हो. खेल की गुणवत्ता पर कोई नहीं सोचता सब चाहते हैं मेरा देश जीते. यह सही है कि अपने देश के प्रति सबका लगाव होना चाहिए लेकिन इतनी भी नहीं कि अच्छे खेल के बावजूद अपने देस की टीम के हार को दूसरों को सहा न जा सके और ऊल जलूल वक्तव्य देते रहे.

पहले खेल फिर देश फिर टीम शायद सही श्रेणी होगी.

खेल के अधिकारियों को अब कम से कम इस ओर ध्यान देना चाहिए ताकि खेलों की गुणवत्ता को वापिस लाया जा सके.
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एम आर अयंगर.

खेल, तकनीक, ताकत, दम,शारीरिक सौष्ठव, युद्ध.






गुरुवार, 20 नवंबर 2014

काला पेंदा.

काला पेंदा.

कभी बचपन में पढ़ा था, बाद में देखा भी कि रत्ती के पेंदे पर काला दाग होता है, या यूँ कहिए कि रत्ती का पेंदा काला होता है. लेकिन इसकी जानकारी से परे वह सबके दागों को उजागर कर हँसता रहता है. कहते हैं रत्ती को तो खुद पता नहीं कि उसका खुद का पेंदा काला है.

करीब वैसे ही कुछ हालात हाल ही में देखने को मिले.

31 अक्टूबर के  दिन,. राष्ट्रपति और अन्य गणमान्य व्यक्ति, शक्ति स्थल पर जाकर इंदिरा गाँधी को श्रद्धांजली दे आए. किंतु हमारे प्रधान मंत्री मोदी जी ने ऐसा नहीं किया. यह उनका अपना निर्णय था. किसी ने इस पर कोई टीका टिप्पणी नहीं की गई. बहुत अच्छा लगा कि जनता समझदार हो गई है और ऐसे तुच्छ सवालों – जवाबों से अब वह ऊपर उठ चुकी है. वैसे प्रधान मंत्री की हैसियत से, एक पूर्व प्रधानमंत्री को श्रद्धांजली अर्पित करना, शायद उनका नैतिक न सही, राजनीतिक कर्तर्व्य बनता है, ऐसी मेरी विचार धारा है.

उधर जामा मस्जिद के इमाम बुखारी ने एक दावत में पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज शरीफ को न्योता दे डाला. अब इस पर बवाल मच गया. दो – तीन दिन टी वी पर यह खबर चली कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री आमंत्रित हुए, किंतु भारत के प्रधान मंत्री को न्योता नहीं. जहाँ तक मैं जान सका हूँ यह कोई राजनीतिक मसला नहीं था. शायद बुखारी अपने उत्तराधिकारी का चयन करना चाहते थे या उसके लिए रास्ता आसान करना चाहते थे, जिसमें इस्लामिक नेताओं की बात चलती है.

इसके तुरंत बाद एक और घटना. काँग्रेस ने नेहरू वर्धंंति के बाद पचासवें जन्मदिनोत्सव पर मोदी को आमंत्रित नहीं किया. मोदी की तयशुदा चाल अब परंपरा बन गई. अब खुद मोदी के साथी कहते फिर रहे हैं कि देश के प्रधान मंत्री को आमंत्रित नहीं किया किंतु विदेशों से नेता आमंत्रित किए गए. काँग्रेस कहती है कांग्रेस के नेहरू जन्मोत्सव है, इसलिए काँग्रेस ने उनकी विचार धारा वालों को ही आमंत्रित किया है.

बात अब कुछ - कुछ समझ में आने लगी है. मोदी की तरह हर कोई अपने अपने विचारों के अनुरूप कार्य कर रहा है.

अब कहिए इसका श्रेय किसको दिया जाए. मेरे मत से श्रेय तो मोदी को ही मिलना चाहिए कि उनने एक नई परंपरा शुरु की है. यदि ऐसा न हो तो मेरे राज्य का मुख्य मंत्री , मेरे शहर के जिलाध्यक्ष, मेरे घर आ धमकेंगे कि मैंने अपने बेटे की शादी में राज्येतर मेहमान बुलाए किंतु राज्य के मंत्रियों और जिलाध्यक्षों को नहीं बुलाया... मेरा हाल क्या होगा???

मैं न तो मोदी के समकक्ष हूँ, न ही नेहरू के और न ही इमाम बुखारी के... जब इनमें आपस में ठन गई, तब मैं तो बरबाद हो जाऊंगा...


लक्ष्मीरंगम.
8462021340


काला पेंदा, 

बुधवार, 2 जुलाई 2014

राज्यपाल .....

राज्यपाल ...

जब भी किसी नए प्रधानमंत्री का पदार्पण हुआ – सबसे पहली गाज गिरी राज्यपालों पर. उसके बाद विभिन्न आयोंगों के अध्यक्षों पर बाद में सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के अध्यक्षों पर... इसके बाद निजी सचिव इत्यादि पर.

निजी सचिव तक तो बात समझी भी जा सकती है. लेकिन राज्यपालों तक को पद छोड़ने के लिए कहना या हटाना कितना न्यायसंगत है यह जानना जरूरी है.

राज्यपाल राज्य के लिए और राष्ट्रपति राष्ट्र के लिए समान मायने रखता है ऐसी मेरी अवधारणा है. यदि यह सही है तो राज्यपाल की तरह राष्ट्रपति पर भी कुछ आँच आनी चाहिए लेकिन ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि राष्ट्रपति सर्वोच्च पद पर आसीन हैं. राष्ट्रपति की तरह राज्यपाल भी किसी पार्टी विशेष के नहीं रह जाते. यह बात और है कि व्यक्तिगत रूप से वह किसी भी दल की नीतियों का समर्थन करता हो. फिर भी मानवीय व्यवहार में कितना भी हो, फर्क तो पड़ता है. कुछ निर्णय जो स्वविवेक पर होते हैं उनमें अप्रत्यक्ष रूप से इसे देखा जा सकता है ऐसा मेरा मानना है.

यदि सरकार सुचारू रूप से चलाने के लिए केंद्र के साथ राज्यपाल को बदलना इतना ही आवश्यक हो तो क्यों न हम संविधान में संशोधन कर ऐसा प्रस्ताव पारित करें ताकि हर बार नए केंद्रीय मंत्रिमंडल के साथ नए राज्यपालों की भी नियुक्ति की जा सके. आज की तरह नए सरकार द्वारा राज्यपालों को पदत्याग करने की सलाह – क्या उनके महामहिम होने के भाव का आदर करता है ?

मुझे इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि कौन रहे कौन जाए पर जिस तरह से हटाया जा रहा है या हटने को कहा जा रहा है वह श्रद्धेय नहीं है. जिसे आदर पूर्वक महिमामंडित किया है उनको इस तरह ठोकर मारना सरासर अनुचित है.

राष्ट्रपति के पास राज्यपालों को पदच्युत करने का प्रावधान है पर क्या वह सम्माननीय है? पदच्युत करने का कोई जायज कारण होना चाहिए जैसे किसी गबन में शामिल हों, या कोई दंड संहिता या आचारसंहिता के अनुसार दंडनीय अपराध हो गया हो... न कि केवल इसलिए कि सरकार बदल गई है..

ऐसी परिस्थितियों में गड़करी द्वारा अड़वाणी को राष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त कहा जाना दो चिड़ियों का शिकार करता नजराता है. एक कि अड़वाणी जी को कोई और पद मिलने की संभावना को नकारना दूरा...क्या कहूँ...

अच्छा हो कि देश में एक नियमित पद्धति लागू हो जाए. वे लोग जो ऐसी पदों पर आसीन हैं जिनके द्वारा ऐसी जरूरी तबदीलियाँ लाई जा सकती हैं उनसे मेरा अनुरोध रहेगा कि इस पर विचारें एवं सम्मत हों तो विचारों को आगे बढ़ाए. अखबार नवीस भी इस पर चर्चा कर इसे जनमानस तक पहुँचाने में मदद कर सकते हैं.
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 लक्ष्मीरंगम

गुरुवार, 26 जून 2014

बचिए – कान खाए जा रहे है.

बचिए – कान खाए जा रहे है.

आँखों को बचाने के साधारण तरीकों के बारे लिखा लेख पसंद कर कुछ साथियों ने कानों की सुरक्षा के बारे में भी लिखने का आग्रह किया. उनके प्रेरणा व प्रोत्साहन का ही फल है कि यह लेख आप सबको समर्पित है.
बचपन की अपनी खुद की बचकानी हरकतों पर आज शर्म आती है. तब किसी के समझाए भी समझ नहीं आती थी. कोई सीरियस बात चल रही हो तो पास की किसी सहेली या दोस्त के कान में फुसफुसाना. जरा सुनना... पास आ.. ना. और जब पास आए तो उसके कान में पूरी भरपूर ताकत से चीखना.. यह एक शरारत होती थी. लेकिन जिसके कान में चीखा गया, उसके कान के पर्दे कंपन से इतने आहत करते थे कि उसकी आँखों में आँसू आ जाते थे. यदि चीख ज्यादा तेज हो, तो शायद कान के पर्दे फट जाएँ. बड़ों ने तो बहुत समझाया, लेकिन समझने को तैयार ही कौन था ? अब बूढ़े हो गए तो समझ आई  पर अब बच्चे समझने को तैयार नहीं हैं.
कान की नाजुकता को समझिए. बचपन में उल्टियाँ आने पर आपकी माताजी आपके दोनों कान अपनी हथेलियों से ढँक लेती थीं. किसलिए ?. इसलिए कि उल्टियों के समय जिस जोर से पेट से सारा माल बाहर आता है, उसमें होने वाली तीव्र आवाज से आपके कानों को कोई नुकसान नहीं पहुँचे. जब पटाखों के फूटने के पहले आप अपने कान बंद कर लेते हो. तेज बिजली कड़कने पर आप आँख और कान दोनों बंद कर लेते हो. उस वक्त आपकी मानसिकता क्या होती थी कभी सोचा है आपने ?.
स्कूल कालेज की परीक्षाओं के दौरान यदि आपके घर या हॉस्टल के आसपास कोई शादी हुई हो या किसी के जन्मदिन पर म्यूजिक डी जे का प्रोग्राम हुआ हो, तो आपको एहसास हो ही गया होगा कि ये शोर आपके कान और मूड के साथ कैसा खिलवाड़ करते हैं. पर गम इस बात का है कि अपने घर प्रोग्राम हो तो हम भी इनकी परवाह करना पसंद नहीं करते.
अक्सर तिमाही परीक्षाओं के समय गणेश चतुर्थी के कारण लोग पंडालों में जोर जोर से गाने बजाया करते थे. छःमाही के समय क्रिसमस और नया साल का मजमा होता था. अच्छा हुआ ये तिमाही – छःमाही परीक्षाएं खत्म ही कर दी गईं.
कानों के लिए आजकल एक नई बीमारी आ गई है मोबाईल फोन. लोग फोन कान से सटाए, घंटों उस पर लगे रहते हैं. खासकर सफर में तो इन बड्स के बिना लोग सोते भी नहीं. एक नया उपकरण है ब्लूटूथ ईयर प्लग जो हेंड्स ऑफ काम करता है. हमेशा कानों में ही लगा रहता है. जब कोई कान में हीयरिंग बड्स (प्लग) या ब्लूटूथ रिसीवर डालकर झूमते रहता है, तब कई तो उन्हें पागल समझने लगते हैं. उनकी हँसी को बेकारण समझ कर सोचने लगते हैं कि कहीं वह हम पर तो नहीं हँस रहा और बिन बात के उसके बारे में गलत धारणा घर कर लेती है. ऐसे समय किसी से कुछ कहो तो पहले आपकी मुखाकृति देखकर सोचेगा कि इसकी बात सुनी जाए या नहीं. यदि सुनने का मन बना लिया, तब अपने एक कान से स्पीकर (हीयरिंग) बड निकालेगा फिर पूछेगा क्या ? यानि आपको निश्चिंत रहना है कि पहली बार कोई सुनेगा ही नहीं. इसलिए पहली बार केवल होंठ हिलाइये, जब कान खाली हो जाएं तब ही कहिए. अन्यथा आपकी मेहनत बेकार. इस तरह की हरकतों से जब तक जरूरी न हो कोई उनसे बात करने की कोशिश नहीं करेगा और वे अपने आप अलग थलग रह जाएंगे.
लगातार कान में इस तरह का शोर कान खराब करने में पूरी मदद करता है. लोग परहेज तो कर नहीं सकते, इसलिए कान ही खराब करते हैं. लगातार कान में रहकर ईयर प्लग वहाँ घाव भी करता है. ऐसे लोगों से भी पाला पडता रहता है जिन्हें अपने आनंद के लिए दूसरों को परेशान करना भी अखरता नहीं है. छोटे बच्चे या बुजुर्गों वाले पडोस में भी रात के तीसरे पहर तक हाई वॉल्यूम में संगीत बजाकर मदहोश नाचते गाते कालेजी विद्यार्थी या बेचलर एम्लॉईज को कोई फर्क नही पड़ता. किसी को भोर सुबह उठने की आदत है, किसी को सुबह की फ्लाईट पकड़नी है या किसी की तबीयत खराब है – इससे किसी को क्या लेना देना. हम तो अपने घर में पार्टी कर रहे हैं – आवाज आपके घर जाए तो हम क्या करें ? कुछ गलतियाँ इन फिल्म वालों की भी है. आजकल के गाने शायद लो वॉल्यूम में अच्छे भी नहीं लगते. पुराने गीत तो लो वॉल्यूम में ही सुने जाते हैं. वेस्टर्न कल्टर की देन है या कहें महत्ता है यह सब.
यदि आप पार्टियों के शौकीन हैं तो गौर कीजिए कि नशा चढ़ते चढ़ते आपकी श्रवण क्षमता घटती जाती है. इसका अंदाज आप इससे लगा सकते हैं कि नशा आते ही बोलने की आवाज बढ़ जाती है, क्योंकि कान कम सुनते हैं. इस लिए यह समझ कर कि धीरे बोला जा रहा है, तेज बोला जाता है. सामान्य से तेज बोलने से ही नशेड़ी सुनेगा.
आप यदि सड़क पर निकलते रहते हैं तो अक्सर देखते होंगे कि स्कूटर  या मोटर सायकिल पर सवार लोग (सायकिल वालों की बात क्या करें) अपना एक कंधा उठाकर कानों से लगा लेते हैं और एक झलक में ही आप भाँप जाते हैं कि वह मोबाईल पर बिजी है. उसे आपके गाड़ी की हॉर्न क्या सुनाई देगी. यही आदते सड़क दुर्घटनाओं का कारण बन रही हैं. यह बात और है कि इसी कारण उसे सर्विकल स्पोंडेलाइटिस हो जाएगा और वह डॉक्टरों के इर्द-गिर्द घूमता रहेगा.
यह खबर अखबारों में आ ही चुकी है कि छत्तीसगढ में बिलासपुर के पास उसलापुर स्टेशन के नजदीक एक लड़का ईयर फोन पर गाने सुनते सुनते रेल्वे ट्रेक पर चलते हुए अपने घर की तरफ (शायद) जा रहा था. पीछे से दिल्ली जाने वाली संपर्क क्रांति एक्सप्रेस आई. जैसे ही चालक को व्यक्ति नजर आया, उसने ब्रेक लगाना और हॉर्न बजाना शुरु किया, पर उस लड़के को सुनाई नहीं पड़ा. ब्रेक लगते-लगाते भी लड़के को जान से हाथ धोना पड़ा. यह तो एक है. पता नहीं कितने और होंगे. शायद यह आईडिया वालों का विज्ञापन था – वॉक द टॉक”. लेकिन आज भी कान में स्पीकर प्लग डालकर पैदल चलते, दुपहिया या चारपहिया चलाते चालकों की संख्या में कमी नहीं आई है. कार वाले तो समझते हैं कि हम चार पहियों पर सुरक्षित हैं और बेबाक मेबाईल पर बात करते रहते हैं. ध्यान हटा और हॉर्न न सुने जाने की वजह से कोई टक्कर लग गई तो वे चार पहिए ही कंधों का रूप धारण कर सकते हैं इसका उनको भान भी नहीं रहता. ध्यान के भटकाव को कम करने के लिए, यातायात अधिकारियों ने इस पर भारी जुर्माना भी कर रखा है, पर किसे पड़ी है चिंता – जान ही तो जाएगी.
आप किसी न्यायालय, स्कूल या अस्पताल के पास जाकर खड़े हो जाईए. वहाँ एक संदेश पटल दिखेगा - हॉर्न बजाना मना है (NO HORN). पर हर एक गुजरती गाड़ी हॉर्न जरूर बजाकर जाएगी, जैसे मानो लिखा हो कि हॉर्न बजाना है. इसके ठीक विपरीत अंधे मोड़ों पर विशेषकर चमकदार अक्षरों में  लिखा होता है हॉर्न बजाईए (Horn Please), वहाँ लोग हॉर्न बजाने से परहेज करते हैं. यह अपनी सुरक्षा के प्रति अवहेलना का भाव है या कानून की अवहेलना का - यह मेरे समझ से परे है.  हम मनुष्य औरों के दर्द से दूर क्यों हो रहे हैं. अपने दर्द को भी पहचान नहीं पा रहे हैं - यह कौन सी मानसिकता है.
मानव के कान निश्चित तीव्रता और फ्रीक्वेंसी रेंज के लिए ही बने हैं और इसमें आवाज की एक हद तक ही सहनशीलता है. इसे डेसीबल्स में नापा जाता है. 85 डेसीबल्स से ज्यादा की आवाज (शोर) कान को खराब करने की क्षमता रखती है. आवाज की तीव्रता बढ़ने से कम समय में ही तकलीफ शुरु हो जाती है. ज्यादा देर तक उस आवाज के दायरे में रहने से परमानेंट नुकसान भी हो सकता है. इसके लिए सरकारी तौर पर भी नियम बनाए  गए है. लेकिन कान हमारे हैं- आदत हमारी है–कौन बदल सकता है.
बड़े खराखानों में अक्सर शोर की समस्या रहती है सो वहां ईयर प्लग या मफलर का प्रयोग किया जाता है. जैसे सर की सुरक्षा हेलमेट से होती है वैसे ही कानों की सुरक्षा ईयरप्लग या मफलर से होती है. ईयरप्लग (स्पाँज के बने) कानों में ठूँसकर रखने के लिए होते हैं और ईयर मफलर, हेडफोन स्पीकर (फुल कवर–क्लोज्ड) की तरह पूरे कान को ढँक कर रखते हैं जिससे पास पड़ोस का शोर कानों में नहीं जाता और कान के पर्दों पर हाईफ्रीक्वेंसी या तीव्रता का कोई असर नहीं हो पाता. हमेशा हिदायत दी जाती है कि कभी भी अधिक शोर शराबे वाले इलाके में जाने से पहले कानों में मफलर (कम से कम ईयर प्लग) लगा लेना चाहिए.  रकवस क असर नह हत. हमश हदयत द जत ह कफपपप
एक बार हम सब अपने कार्यालय की तरफ से मेडीकल जाँच करवाने गए. जब मेरे कान को जाँचने की बारी आई तो नर्स ने कहा यह रिमोट हाथ में रखो और जब भी बीप की आवाज सुनाई दे, दबा दिया करना. इससे यह मालूम हो जाएगा कि आपको आवाज सुनाई दी है. जाँच के बाद रिपोर्ट डॉक्टरके पास आई. मुझे देखकर ही डाक्टर हैरान हो गए. मेरी समझ में कुछ नहीं आया. मुझसे मेरा नाम, उम्र, पता, काम सब पूछ लिया. बोल पड़े 53 वर्ष और इतने अच्छे कान ? मैंने खुलकर उनसे पूछ लिया आप कहना क्या चाहते हैं  ? उनने पूछा क्या आप पंपशेड में नहीं जाते हैं. मैने बताया कि रखरखाव के लिए मुझे पंप शेड में ज्यादा ही जाना पड़ता है. उनने मुझसे साझा किया कि मेरे कानों की श्रवण क्षमता उम्र के सापेक्ष में बहुत ही अच्छी है. फिर सवाल किया कि पंप शेड में जाते हुए भी आपके कान इतने अच्छे कैसे हैं, जबकि आपके सारे साथियों के कानों में कुछ न कुछ तकलीफ तो हैं  ? मुझे खुशी हो रही थी कि मेरी कोशिश रंग लायी और ईयर मफलर के प्रयोग ने मेरे कानों को बचाकर रखा.
मैंने डॉक्टरों को बताया कि मैं कभी भी बिना ईयर मफलर के एंजिन-पंप शेड के पास भी नहीं जाता – यह निश्चित है. नौकरी तो 58-60 साल की उम्र तक रहेगी, पर कानों को तो मेरी जिंदगी भर साथ देना है. नौकरी के लिए मैं अपने कान नहीं गँवा सकता. डॉक्टर मेरी बातों से बहुत खुश हुए और कहने लगे आपके और साथियों को क्यों नहीं समझाते. समझाएं किसे. सब तो जानकार हैं. जानबूझ कर भी कोई अपने कानों को खोने का खतरा मोलना चाहे, तो कोई क्या कर सकता है ?  
यह तो हुई कान को जरूरत के समय बंद रखने के विभिन्न गलत तरीके जो आजकल के युवा अपना रहे हैं, और सही तरीके जिनकी अवहेलना हो रही है. ऐसे लोग अक्सर अलग एकाकी जीवन जीने के पक्ष में होते हैं. पता तब चलेगा जब बीबी चीखेगी कि बहरे हो गए हो क्या. या फिर जब साथी की जरूरत होगी, अकेलापन खाने को दौड़ेगा और कोई साथ देने वाला नहीं होगा.
दूसरी प्रजाति है जो बैठे बिठाए निठल्ले की तरह हाथ में जो कुछ भी हो जैसे माचिस की तीली. गाड़ी की चाबी, छोटा स्क्रू-ड्राईवर या ऐसी पतली चीजों से कान कुरेदते रहते हैं. कभी कोई झटका लगा या फिर गलती हो गई तो कान से खून निकलने लगता है और फिर डर लग जाता है कि कहीं कान तो खराब नहीं हो गए. वैसे जॉन्सन के इयर बड्स काफी चल पड़े हैं लेकिन मेरा मानना है कि कानों में तेल के अलावा कुछ न डालें तो ही बेहतर होगा. दैविक सृष्टि के कारण कान का मैल तेल डालते रहने से अपने आप बाहर आ जाता है.
मेरे एक पढ़े लिखे मित्र ने एक कमाल दिखाया. कभी स्कूल में पढ़ा था कि कानों को हाईड्रोजन पराक्साईड से साफ किया जाता है (धोया भी जाता है) सो जनाब खुद डाक्टर बन गए और बाजार से लाकर हाईड्रोजन पराक्साईड को कानों में डाल लिया. फलस्वरूप उसका एक कान खराब हो गया और दूसरा कम सुनता है. इलाज के लिए सारी दुनियाँ घूम चुका है. अपने लिए खुद मुसीबत मोल ली. जब अक्ल ज्यादा हो जाती है तो ऐसे ही होता है. खैर गनीमत है कि वह अभी भी कम सुनने वाले कान में मोबाईल लगाकर बात कर पाता है.
एक अतिरिक्त समस्या है - गुस्से को काबू में न रख पाना और कनपटी पर खींच कर चपत लगाना. यदि सही कनपटी पर पड़ गया तो आँसू छलक जाते हैं. चपत के जोर पर निर्भर करता है कि श्रवणशक्ति बची या गई. जोर की मार से कान के पर्दे झन्ना जाते हैं और कभी कभार फट भी जाते हैं. ऐसा गुस्सा न ही करें तो ही अच्छा है. अच्छा हुआ कि अब स्कूल व घर में बच्चों को पीटना जुर्म की श्रेणी में आ गया है. एक अन्य स्थिति उत्पन्न होती है, हवाई सफर में. टेक ऑफ व लेंडिंग के समय कानों के पर्दों के दोनों तरफ हवा के दबाव की असमानता के कारण दर्द होने लगता है. ऐसे वक्त जम्हाई लेते रहें या फिर मुँह से श्वास लें तो दर्द जाता रहेगा. इसी लिए पहले पहल वायुयात्रा में टॉफियाँ दी जाती थी. बच्चे समझते थे कि परिचारिका कितनी अच्छी है. इसके लिए अब फ्रूट जूस दिया जाता है पर यात्री इसे तुरंत पी जाते हैं.
अंततः उन सिरफिरे ड्राईवरों का जिक्र तो करना ही होगा जिनको हॉर्न बजाते रहने की आदत है. ये ट्राफिर हो न हो सारे रास्ते हॉर्न बजा बजाकर आपके कान खाते रहेंगे. दूसरे वे जिनकी गाडी में रिवर्स हॉर्न है. चाहे जरूरत हो-न हो,बजेगा ही, कोई कंट्रोल नहीं होता. रात के तीसरे पहर भी गाड़ी पार्क करते या निकालते वक्त भी हॉर्न से सबको परेशान करना जरूरी होता है.
इन सब बातों का जिक्र कर मैंनें उन सब हालातों को दोहराया है जिससे आपके या किसी और के कानों को तकलीफ होती हो. अब परहेज करना न करना - आप पर निर्भर करता है... ये आपके ही कान है... दीवारों के नहीं. जरा सोचें.
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एम.आर.अयंगर.
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शोर, कान, हॉर्न, हाईड्रोजन पराक्साईड, ईयर बड्स,


बुधवार, 18 जून 2014

आँख बचाईए.

आँख बचाईए.

शीर्षक पढकर ही आपको याद आ रहा होगा वह गाना –
अँखियाँ मिलाए कभी अँखियाँ चुराए क्या तूने किया जादू..
मैं ऐसे आँखों के मिलान से बचने की बात नहीं कर रहा हूँ. हाँ मैं इस गाने में कलाकार द्वारा किए गए, आँखों के करतब की बात जरूर कर रहा हूं. यह आँखों को गोल गोल घुमाने की क्रिया आँखों के लिए बहुत ही लाभदायक है.
आज के इस युग में आँखों का काम बहुत बढ़ गया है. सूरज की तीखी रोशनी के साथ साथ अब कृत्रिम रोशनियाँ भी आँख का काम बढ़ा रहीं हैं या यों कहिए कि आँखों को कमजोर करने का काम कर रहीं हैं.
इस दूषित वातावरण में हवा से भी आँखों को नुकसान होता है, सो आँखें धोते रहें.
कोई उड़ती कडी या लहराती हुई वस्तु आँखों को नुकसान न करे, इसका ख्याल रखें. प्रयोगशालाओं में, कार्यशालाओं में केमिकल व धातुओं के कतरनों से बचाव के साधन प्रयोग करे. सेफ्टी गॉगल्स इसके लिए बहुत उपयोगी है. बिजली पर काम करते हुए फ्लेश से हमेशा डरें. यह हाथ और चेहरा तो जला ही देती है, यह आँखों का परमानेंट नुकसान करने की क्षमता भी रखती है.
फेशन करते वक्त चेहरे और आँखों पर लगाने वाले केमिकल से आँखों को बचाए रखें. आँखों पर लगाने वाला लाईनर, कृत्रिम काजल व चेहरे की मेक अप के लिए उपयोगी क्रीम पाउडर भी अपनी थोड़ी कसर पूरी कर लेते हैं.
इस जमाने में आँखों का सबसे बड़ा दुश्मन है कम्प्यूटर. दूसरा है टी वी. चूँकि कम्प्यूटर पर टी.वी. भी देखा जा सकता है, इसलिए यह टीवी से भी ज्यादा नुकसानदायक है. टीवी पर लोग (खासकर स्त्रियाँ) अपनी सीरियल में इतनी मगन हो जाते हैं कि आँखें हटाना तो दूर, पलक झपकने का भी ख्याल नहीं रहता. बड़े बच्चों का पिक्चर के समय यही हाल होता है. छोटे बच्चे कार्टून फिल्म के समय बड़ों को भी टी.वी. के पास फटकने नहीं देते और उनके सभी अवयव टी वी के साथ एकीकृत हो जाते हैं. उनको कार्टून देखने देते हुए उन्हें आप कुछ भी खिलाईए, पिलाईए ... कोई नखरे नहीं होंगे. लेकिन उनके कार्टून फिल्म देखने में दखल दिया तो कुछ भी संभव नहीं होगा. इसके साथ ही हैं वीडियो गेम. जिसमें बच्चे नजर गड़ाए गेम खेलते रहते हैं जो आँखों के लिए अत्यंत हानिकारक है.
अब उससे ज्यादा खतरनाक चीज आ गई है मोबाईल. लोग मोबाईल पर मेल भी पढ़ते हैं, किताबें पढ़ते हैं, पिक्चर और वीड़ियो देखते हैं. छोटे अक्षर देखने के लिए इसे ब्राईट नहीं ब्राईटेस्ट कर लेते हैं और खुद अपने आँखों की तबाही का कारण बनते हैं. याद कीजिए आपको किस उम्र में चश्मा लगा था और आपके बच्चे को किस उम्र में चश्मा लगा है. सामान्य व्यक्ति को 42 की उम्र में चश्मा लगता है, जब नजर कमजोर होनी शुरु होती है. गुजराती में इसे बैताळा कहते हैं जो 42 की उम्र में होती है. आज तो दूसरी-तीसरी के बच्चे को चश्में के साथ देखने पर भी आश्चर्य नहीं होता. किसी-किसी की तो हेरेडिटी होती है. वहां तो मजबूरी है. पर साधारणतः आज के बच्चों के चश्में का कारण मोबाईल, कम्प्यूटर और टी वी है. बड़े बच्चों मे मेबाईल सबसे महत्वपूर्ण कारण बन गया है.
टी वी दोखने या कम्प्यूटर पर काम करने के दौरान आँखों को हर घंटे साफ-स्वच्छ पानी से धोना – एक बहुत अच्छी आदत है. काम करते करते लगभग आधे घंटे में एक बार  दो-चार मिनट के लिए आंखें मूँद लेना चाहिए. इससे आँखों में थकान कम होती है. बीच बीच में पलकों को कुछ-एक बार झपकते रहना चाहिए.
घर से बाहर कतार में सबसे आगे खड़े हुए हैं, ऑटोमोबाईल के हेड- लाईट. ड्राईवरों को जो तकलीफ होती है सो सही, उनकी आँखों को तो नुकसान होता ही है, पर राहगीरों को भी अंधापन जल्दी देने में कोई कसर नहीं छोड़ता. शहर के अंदर जहाँ स्ट्रीट लाईट लगी है, वहां भी ये ड्राईवर हेड लाईट को लो भी नहीं कर सकते. शायद हाई हेडलाईट ही उनकी शान है. चौराहे की पुलिस की ड्यूटी तो दिन-दिन में रहती है और रोशनी होने के पहले ही वह घर पहुँच जाता है.
इन सब से हटकर है, बढ़ता निर्माण कार्य – जिसमें बिना किसी सावधानी के खुले में वेल्डिंग की जाती है. कानून नाम की कोई चीज है – ऐसा प्रतीत तो नहीं होता.
वेल्डिंग की वजह से आँखों को जो नुकसान होता है, उसकी कीमत तो कोई वेल्डर ही जाने. गलती से भी अगर आपकी नजर वेल्डिंग की ज्वाला पर पड़ी तो आँखें तो एक बार को चौंधिया जाती हैं. यदि कुछ सेकंड देख लिया, तो रात को नींद नहीं आती और आंखों मे जलन सा होने लगता है. वैसे डॉक्टर कई तरह के ड्रॉप्स डालने को कहते हैं पर सबसे सस्ता, सुंदर, टिकाऊ और लाजवाब घरेलु नुस्खा है – गुलाब जल. आँखों की परेशानी होने का भान या ज्ञान होने के तुरंत बाद से आंखों में दो बूंद गुलाब जल डालकर आँखें मूंद कर आराम करें. जब आंखों से पानी निकलना रुक जाए, तब आँखों को साफ–ठंडे पानी से धो लें, तो अपना (आँखों के लिए) हल्का काम कर सकते हैं. अच्छा होगा कि कोई काम करने के पहले एक बार, फिर रात को खाने का बाद और सोने के पहले एक और बार दो बूँद गुलाब जल आँखों में डाल लें. आँखों में आराम भी होगा और नींद भी आएगी. सुबह तक आँखें नार्मल हो जाएंगी. अक्सर वेल्डर  रोज आँखों में गुलाब जल डालते हैं. या फिर डॉक्टर के सुझाए ड्राप्स साथ लेकर चलते हैं.
वेल्डिंग इन्स्पेक्टर को हमेशा वेल्डिंग गॉगल्स पहन कर ही फील्ड में जाना चाहिए. जिस तरह बाहर सूरज पर, कमरे में सीएफ एल या ट्यूब पर जरूरत न होने पर भी नजर जाती है, उसी तरह पास पड़ोस में हो रहे वेल्डिंग के चकाचौंध के कारण वेल्डिंग आर्क पर भी नजर जाती है. अक्सर कहा जाता है कि वेल्डिंग इन्स्पेक्टर को वेल्डिंग आर्क देखने की क्या जरूरत है, उसे तो वेल्डिंग के बाद निरीक्षण करना है. लेकिन निरीक्षण करते वक्त पास यदि वेल्डिंग हो रही है, तो उसकी नजर वेल्डिंग पर जाएगी ही.. यह मानव स्वभाव है. इसे नकारा नहीं जा सकता.
आप उम्मीद करते हो कि पास से गुजर रहे दोस्त आपको देखें. यदि वह पास से निकल जाता है तो पूछते भी हो – यार बगल से निकल गया देखा तक नहीं. किंतु उम्मीद करते हो कि पास के चकाचौंध सी वेल्डिंग पर नजर न जाए.. कितना उचित है ???
घरेलू नुस्खों में गुलाब जल को सबसे उत्तम माना जाता है. आँखों की थकान कम करने के लिए दोपहर या रात में सोते समय बंद आँखों पर चकती की रूप में कटी खीरे को रखने से थकान कम होती है.
दिन में सुबह कम से कम एक बार और यदि हो सके तो रात में सोने से पहले एक और बार आँखों की कसरत कर लेनी चाहिए. इसके लिए आप अँखियाँ मिलाए कभी अँखियाँ चुराए क्या तूने किया जादू..वाले गाने का वीडियो देखें. जिस तरह से आँखों की पुतलियों को घुमाया गया है, यह आँखों के लिए एक बेहतरीन कसरत है.  जिसमें सर सीधा सामने की ओर रखते हुए आँखों की पुतलियों को घुमाकर चेहरे के चारों ओर जितना हो सके देखने की कोशिश करनी चाहिए. पर ध्यान रहे कि पुतलियाँ एक जगह ठहरी नहीं रहें – चलती रहे. पंद्रह सेकंड से आधा मिनट का समय काफी होता है, इस व्यायाम के लिए. यदि पुतलियों के घूमने की दिशा का परिवर्तन कर सकें तो और भी अच्छा है.
शादी –बारातों की और दिवाली की आतिश बाजियाँ विद्युत ( बिजली) और रसायन का मिश्रण होती हैं. इनके कण यदि आँखों में चुभ जाएं तो खतरनाक हानि हो सकती है. सँभलने से बड़ा कोई उपाय नहीं है. हाँ मुसीबत आने पर डॉक्टर के पास तो जाना ही पड़ेगा.
सूर्य, मेटल होलाईड या सी एफ एल लाईट को एकटक न देखें संभवतः कवर लगे हुए इंडैरेक्ट सी एफ एल का ही इस्तेमाल करें. साधारण बल्ब, ट्यूबलाईट के मुकाबले सी एफ एल की इंटेन्सिटी बहुत ज्यादा होती है. यह आँखों के लिए ज्यादा नुकसान दायक है, पर बिजली बचाती है. निर्णय आपका है कि आँख बचाएँगे या पैसा.
बच्चे खेल खेल में ( डॉक्टरों का नकल करते हुए) आँखों में टार्च की रोशनी डालते हैं. आजकल बीम टार्च बाजार में है और उनकी तेज तीखी रोशनी आँखों के लिए हानिकारक है. यदि कोई मजबूरी न हो तो तेज लेजर बीम की रोशनी आँखों में न पड़ने दें.
बैटरी बैंकों पर काम करने वालों को अपनी आँखों में एसिड पड़ने से बचने हेतु विशेष ध्यान देना चाहिए. किन्ही तकनीकी कारणों से बैटरी फट जाए, तो ऐसा खतरा होता हैं.  फिर बैटरी में एसिड भरते समय जार हाथ से छूटने पर एसिड छलक सकता है. ऐसे हादसे भी देखे गए हैं जिसमें बैटरी के रखरखाव के दौरान वोल्टेज नापने के लिए कारीगर ने मल्टीमीटर को एम्पियर सेलेक्शन में रख रखा था. कनेक्ट करते ही मीटर के तार जलने लगे और बैटरी फूट गई. बैटरी तो गई ही, पर कारीगर के चेहरे पर तेजाब व फूटे बैटरी के टुकड़ों से चोटें आईँ. तुरंत किए गए प्राथमिक उपचार व डॉक्टरी सहायता के कारण नुकसान बहुत ही कम हुआ, पर हो ही गया. ऐसी गलतियों से परहेज करने का विशेष द्यान रखना आवश्यक है. परवरदिगार का शुक्र है, आँखें बच गईं.
बैटरी बैंक के कमरे में एक्जॉस्ट फेन चलते रहना जरूरी है अन्यथा एसिड के फ्यूम इकट्ठा होते हैं जो आँखों व दिल के लिए खतरनाक होते हैं. कमरे में या पास में पानी का इंतजाम होना चाहिए. एसिड पडने पर बोरिक एसिड पाउडर से आँखों को धोया जाता है. इसलिए वहाँ बोरिक एसिड पाउडर भी रखना आवश्यक है.
दैनंदिन कार्यों के दौरामन सड़क पर की उड़ती धूल, आँधी की धूल, कार्यशाला में बिखरे धातु के कतरन के आँखों मे आने, मेटल हेलाईड व सीएफ एल व लैंप लेजर बीम को सीधे देखना, वेल्डिंग की रोशनी को निहारना – इन सब से बचना चाहिए. जहाँ भी जरूरी हो प्रोटेक्टिव ( ऱक्षक) उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए.
रामायण व महाभारत सीरियल के समय बच्चों मे तीर कमान का खेल काफी प्रसिद्ध हुआ और फलस्वरूप तीरों के लगने से बहुत से बच्चों की आँखों में तकलीफ हुई. कुछ की तो नजर गई ही होगी.
छोटे बच्चे खेल के शौक से रंगीन चश्मों की मांग करते हैं. कोई गॉगल्स चाहता है. ऐशे में बच्चे को खरीदकर दे देना चाहिए. आप ख्याल रखें कि खेल खेल में ही बच्चा जाने अन्जाने अपनी आँखओँ की रक्षा भी कर सकेगा.
कहा जाता है कि मछली के सेवन से नजर तेज होती है पर बंगाल में इतनी मछली खाई जाने के बाद भी बहुत से बंगालियों को कम उम्र में ही चश्मा लग जाता है.
सावधानी के तौर पर, साल में कम से कम एक बार डॉक्टर से आँखों की जाँच करवा लेनी चाहिए. खास कर उन लोगों को जिनको चश्मे की जरूरत होती है. आँखों की आवश्कतानुसार चश्मे का प्रयोग न होने से दृष्टि तो बिगड़ ही जाती है साथ ही आँखें और खराब होने का डर भी रहता है.
माड़भूषि रंगराज अयंगर

गुलाब जल. वेल्डिंग, मोबाईल, टी.वी. कम्प्यूटर

शुक्रवार, 13 जून 2014

पर्यावरण – हम क्या करें.

पर्यावरण – हम क्या करें.

आज पर्यावरण बहुत ही जाना पहचाना शब्द है. सबको पता है कि औद्योगिक इकाईयों से निकलने वाली गैसें प्रदूषण करती हैं. जिससे पर्यावरण दूषित होता है तथा यह आम आदमी की सेहत पर विभिन्न प्रकार से दुष्प्रभाव डालता है. पर्यावरण दूषित होने से हवा में ऑक्सीजन की मात्रा तो कम हो जाती है. साथ में इसके असर वायुमंडल को हानि पहुँचाकर सूरज के अवाँछनीय किरणों को भी धरती पर आने का न्यौता देती हैं, जो खतरनाक और नई बीमारियों की जड़ बन रही है. ध्रुवों की बर्फ के पिघलने के कारण सारी धरती के तापमान पर कुप्रभाव पड़ रहा है. इसका एक पहलू ग्लोबल वार्मिंग के नाम से जाना जाता है. इन सब के बावजूद आज भी जन साधारण को पता नहीं है कि इस के लिए वह क्या करे या वह क्या कर सकता है? ऐसी विषम परिस्थिति में जन साधारण जो सहयोग कर सकता है उसके बारे में ही यह लेख है.

सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि पर्यावरण का सीधा संबंध स्वच्छता और सफाई से है. स्वच्छता बनाए रखने से पर्यावरण का बहुत कुछ काम होता है. जैसे सफाई रहे तो मच्छर, कीड़े मकोड़े कम होंगे. बीमारियाँ कम होंगी. लोग स्वस्थ रहेंगे. लोग अपने दुपहिए चार पहिए वाहनों को स्वस्थ रखेंगे, तो उसके ईँधन का सही प्रयोग हो पाएगा, ईंधन बचेगा एवरेज अच्छा मिलेगा. अन्यथा कार्बन मोनो ऑक्साईड (CO) उत्पन्न होगा जो एक अस्थिर रसायनिक पदार्थ है. यह वातावरण से ऑक्सीजन (प्राण वायुलेकर एक स्थिर पदार्थ कार्बन डाई ऑक्साईड (CO2)बनाता है. यह वातावरण को दूषित करता है. इस तरह से अपने वाहनों का सही रखरखाव करना वातावरण को दूषित करना और प्रदूषण फैलाना है, जिसे बचाया जा सकता है. यह पर्यावरण के लिए भी घातक है.

धूम्रपान करने से सेहत को क्षति पहुँचती है यह सब जानते हैं पर वे यह नहीं सोचते कि जो घुआँ वे छोड़ते हैं या जो धुआँ बीड़ीसिगरेट के जलने से वातावरण में फैलता है, वह वातावरण को भी तो खराब करता होगा. इस तरह धूम्रपान सेहत के लिए ही नहीं पर्यावरण के लिए भी हानिकारक है.

आज भी ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ कोयले से, लकड़ी से और तरह की ईँधनों से खाना पकाया जाता है. इनका धुआँ फिर वही काम करता है जो वाहनों का धुआँ और धूम्रपान का धुआँ करता है. यानि यह भी वातावरण से जीव वायु हर लेता है और फिर वातावरण को दूषित भी करता है. लोगों को चाहिए कि यथासंभव रसोई गैस का प्रयोग करें और सरकार को चाहिए कि इनको ध्यान में रखकर रसोई गैस का उचित प्रबंध करे. रसोई गैस बनाने में वातावरण पर असर तो होता है, पर इसी दौरान अन्य पेट्रोलियम पदार्थ भी बन जाते हैं, सो रसोई गैस का इस्तेमाल करने से वातावरण पुनः प्रदूषित नहीं होता. वैसे ही बिजली के प्रयोग से वातावरण अतिरिक्त प्रदूषण का  शिकार नहीं होती. बिजली उत्पादन में जले ईँधन चाहे कोयला हो या तेलपर्यावरण को खराब कर चुके हैं.

कार्बन के अलावा भी तरह तरह के प्रदूषण फैलाने वाले तत्व औद्योगिक चिमनियों से निकलने वाली गैसों में होते है. पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण विभाग तो अपना काम करते हैं पर यह संभव नहीं है कि इन्हीं के सहारे सब छोड़कर संतुष्ट हो जाएं. सारे औद्योगिक इकाईयों को सँभालना उनके बस की बात नहीं है. उद्योगपतियों को, वहाँ के कामगारों अधिकारियों को भी प्रदूषण नियंत्रण अधिकारियों का साथ निभाना होगा. यानि खाना पूर्ति नहींदिल लगाकर, सहभागी बनकर कार्यक्रम को पूरा करना होगा. वरना आप तो कमा लोगे, पर सारी जनता का श्राप सर पर लेकर चलोगे.

कभी हर मकान के सामने एक बगीचा हुआ करता था. उसमें सड़क के किनारे छायादार, फलदार या औषधियों वाले पेड़ लगे होते थे. घर की खिड़की दरवाजों के पास फूलदार महकने वाले पौधे होते थे. उस पर कोई जगह रह गई हो तो उसमें साग-सब्जी के पौधे लगा लेते थे. अब ही जमीन पर इतनी जगह बची है और ही दिल में.शायद आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण लोग आज कल कॉँक्रीट के जंगलों में रहते हैं, भूतल वासियों को थोड़ी बहुत जमीन नसीब हो जाती है, बाकियों को कहाँ. पौधे गमलों में लगाए जाते हैं, पर फूल वाले फल वाले ... केवल सजावटी. पर घर के भीतर हरियाली मच्छरों को न्योता है. यह सबको पता है पर लोगों के पास इस ज्ञान के बारे सोचने का वक्त नहीं है.

पेड़ दिन में ऑक्सीजन देते हैं और रात में कार्बन डाई ऑक्साईड. इसी लिए पेड़ों का होना जीवन के लिए लाभकारी है, फल, फूल, पत्ते, छाँव तो अतिरिक्त लाभ हैं. इसीलिए रात में पेड़ के नीचे आराम करने को मना किया जाता है. दिन में छाँव के अलावा आराम मिलने का एक कारण यह प्राणवायु भी है. एक और खास बातकरीब हर घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाया जाता है. लोग इस की पूजा भी करते हैं. पता नहीं कितनों को ज्ञात है कि तुलसी एक ऐसा पौधा है जो चौबीसों घंटे प्राणवायु उत्सर्जित करता है. इसीलिए लोग इसे आँगन में ही लगाए रखते हैं. तुलसी के होने से आस पास साँप भी नहीं नजर आते हैं. तुलसी के पत्ते और तुलसी दळ भी औषधियों में काम आते हैं.

अब देखिए, पौधों से जहाँ फल, फूल, पत्ते प्राप्त होते हैं, वहीं राहगीरों को छाँव समाज को प्राणवायु मिलती है. नदीतट पहाड़ की तराईयों में यो पेड़ मिट्टी को बाँध कर रखने का काम करते हैं. नदी तट के कटाव को यह रोकता है. कई तरह के पेड़ों के बीज नदी जल मे गिरकर पानी को निथारने का काम करते हैं जिससे सतह का पानी हमेशा पीने योग्य होता है. कई तरह केपौधों पेड़ों में औषधीय गुण हैं जो आयुर्वेद में प्रयुक्त होते हैंफिर भी नासमझ इंसान पेड़ों की बेरहमी से कटाई किए जा रहा है.
जंगल वन्य प्राणियों का निवास स्थल है. यहि वन काट दिए जाएं तो वे कहाँ जाएंगे. शहर आने सो नरभक्षी कहकर गोली मार दी जाती है. इस तरह जंगल काटकर हम वन्य प्राणियों के संहार का कारण बन रहे हैं. इसी तरह पत्थरों के लिए एवं रिहाईशी जगह के लिए पर्वत भी तोड़े जा रहे हैं. पहाड़ों से टकराकर ही तो बादल बरसात करते हैं. यदि पहाड़ ही नहीं रहे तो बादल बिना बरसे ही आगे बढ़ जाया करेंगे और बिन बारिश के फसल तो होगी ही नहीं. इस तरह हमारी आदतें हमारी अपनी जीवनी में तकलीफ देने वाली साबित होंगी. इनसे परहेज करना पड़ेगा.

पेड़ों को काटने के मुख्य कारण हैंईंधन हेतु, फर्निचर के लिए कागज बनाने हेतु, माचिस  तीलियों के लिए,, झाड़ू के लिए, पेंसिल के लिए, अगरबत्तियों के लिए एवं अन्य सुविधाओं के लिए. इसकी जानकारी होने पर हमें इनका विकल्प खोजना चाहिए. ईंधन के लिए सरकार को चाहिए कि एल पी जी को बढ़ावा देएल्यूमिनियम के दरवाजे और पल्ले कुछ कीमती होते हैं, पर काफी आकर्षक भी होते हैं. लोगों को चाहिए कि घरों मे खिड़की और दरवाजों के चौखट लकड़ी के बना कर लोहे या एल्यूमिनियम के बनाएं. पल्ले तो काँच या एक्रीलिक के भी आने लगे हैं. भीतरी दरवाजे काँच या एक्रीलिक के तो हो ही सकते हैं. माचिस की तीलियाँ मोम से बनने लगीं थीं, पर जाने क्यों अब कम ही दिखती हैं. वैसे ही पेन्सिल भी एक्रीलिक के बनने लगे थे, पर अब गुम हो गए. माचिस के डब्बे भी अब लकड़ी के बदले कागज से बन रहे हैं. हमें चाहिए कि उन्हें भी प्लास्टिक के बनाएँ. बची बात अगरबत्तियों की, जिसमें कोई पहल नहीं हुई. हमें इस तरफ सोचना चाहिए. फर्नीचर तो धातु के या फिर एक्रीलिक के बाजार में ही गए हैं. अब सरकार को भी पहल कर इस दिशा में कानून बना देना चाहिए. झाड़ू भी लकड़ी की जगह अब सेलो जैसे प्लास्टिक के आने लगे हैं.

पेड़ों के कटाई का एक बड़ा हिस्सा पेपर बनाने में निवेश हो जाता है. अब तक पेपर का विकल्प खोजा नहीं जा सका है. कम्प्यूटर के जरिए पेपर के उपयोग को कम किया जा रहा है पर इस दिशा में बहुत काम अभी बाकी है. पेकेजिंग के लिए भी लकड़ी, कागज और गत्ते का प्रयोग होता है. इसके विकल्प पर भी ध्यान देना आवश्यक हो गया है.
हालाँकि प्लास्टिक कुछेक जगह पेपर का विकल्प बन सकता है लेकिन अपने आप में प्लास्टिक खुद एक समस्या है. यह वातावरण में प्राकृतिक तरीकों से नष्ट नहीं होता. वरन् जानवर इसे खाकर, गला अवरोधित कर लेते हैं और प्लास्टिक उनकी जानहानि का कारण बन जाता है.

रखरखाव सही होने पर खतरे का अनुमान तो भोपाल गैस काँड से लगाया जा सकता है. सुरक्षा नियमों का सही अनुपालन होने पर आगजनी की घटनाएँ होती हैं और फिर वातावरण प्रदूषित होता है. याद कीजिए जयपुर तेल डिपो (टर्मिनल) की आग, विशाखापत्तिनम के रिफाईनरी की आग. नुकसान की भरपाई क्या होगी .. सब खाक हो जाता है.

लोग कपड़े धोने के बाद बचे साबुन के पानी को नाले में बहा कर WC (लेट्रिन) में डाल देते हैं शायद उन्हें पता नहीं होता कि साबुन के पानी से सेप्टिक टैंक में पल रहे कीटाणु मर जाते हैं. ये कीटाणु मल को विघटित करने का काम करते हैं. जिससे विघटन का काम धीमा पड़ जाता है और गंदगी होने का डर रहता है.

अब आईए पूजा स्थल पर. पूजा की सारी सामग्री को पूजा के बाद एकत्रित कर जलप्रवाह कर दिया जाता है. जहाँ जिसे जैसा जल भंडार मिलता है वह उसमें बहा आता है. लेकिन कोई भी अपने घर के कुएं में इन्हें नहीं बहाता. क्यों ? स्थिर पानी में बहाने से ये फूल पत्ते सड़कर पानी को गंदा करते हैं. बहतेपानी में बहाने पर ये सड़ते तो है पर धारा प्रवाह में मँझधार की तरफ हो लेते हैं और सड़ कर नैसर्गिक विघटन के बाद कहीं तली पर या तट पर समा जाते हैं. इससे वह तटीय पानी दूषित नहीं होता जो जन साधारण के काम आता है.

वैसे ही सार्वजनिक पूजा की प्रतिमाएँ भी जल में विसर्जित की जाती हैं. इनके साथ भी यही समस्या है. बल्कि इनमें मिट्टी के अतिरिक्त कपड़ा, लकड़ी , प्लास्टिक और लोहा भी होता है.. मिट्टी तो घुल जाती है पर बाकी सब खराबी का काम करते हैं. खास तौर पर तालाब, झील, बाँधों में डाले गए सारे कचरे से जल दूषित होता है और एक मात्रा के बाद पीने योग्य भी नहीं रह जाता. वैसे धर्मानुसार भी इन सबका जलप्रवाह करने को कहा गया है. लेकिन हम पानी के बहने के भाव को भूलकर खाना पूर्ति के लिए कहीं भी पानी में डाल देते हैं. कोई अपने घर के कुएँ में डाले और देखे क्या फर्क पड़ता है. तब असली माजरा समझ में अएगा.

ऐसी एक और समस्या है. पीने के पानी के लिए लोग कुआँ, बोरवेल खुदवाते हैं. स्वाद के आधार पर ही जाँच लिया जाता है कि पानी पीने योग्य है या नहीं. किसी को भी प्रयोगशाला में परीक्षण करवाने की जरूरत महसूस नहीं होती. दावतों के बाद फेंकी गई पत्तलें और भोजन सामग्री भी इस तरह ही फेंकी जाती है. पास के जलाशय की हालत तो बहुत बुरी हो जाती है. वैसे इनका बाहर खुले में फेंकना भी मुसीबत है. हालाँकि पूर्णतया सही नहीं है पर खाना और पत्तल अलग अलग करने से इलाके के जानवरों का पेट भर सकता है. खाना झूठा नहीं हो तो याचकों को परोसा जा सकता है. पर नहीं इसमें किसे तस्ल्ली है. बाहर फेंको और भूल जाओ.

भोज और दावत के समय शहर के सफाई विभाग को सूचित कर पत्तों बचे भोजन को सही ढंग से निबटाया जा सकता है. वे थोड़ी बहुत रकम फीस के रूप में ले लेंगे और इनका सही तरीके से विस्थापन कर देंगे. लेकिन भोज परोसने वालों के पास इतनी रकम शायद नहीं होती होगी पैसा सारा भोज में खर्च हो चुका होगा... वाह रे जमाना ... पढ लिख कर भी लोग ऐसे करने में आनंद पाते है.

यह विषय तो बहुत ही बड़ा है. सारी बातों का जिक्र यहाँ हो नहीं सकता. जितना एक आम नागरिक कर सकता है उसी के बारे कुछ कहा गया है. बात फिर कभी पूरी करेंगे. पहले लोग इससे अवगत हो लें और अपना संभव प्रयास कर प्रकृति के साथ नागरिकों को भी लाभ पहुँचाए.
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एम.आर.अयंगर


पर्यावरण, सफाई, कार्बन मोनो आक्साईड, पानी, पेड़, धुआँ.,