युद्ध स्तर पर
हाल की दो घटनाओं ने जैसे झकझोर कर रख दिया. क्रिकेट मैदान में चोट लगने से दो क्रिकेट की हस्तियाँ जान गँवा बैठीं.
हाल ही में क्रिकेट ने दो
जानें ले ली. एक खिलाड़ी (फिल ह्यूज) की और दूसरा एक इसरायली अंपायर की. दोनों की जान गर्दन से ऊपर गेंद लगने से गई.
पहली घटना मे खिलाड़ी को बाउंसर गर्दन के ऊपर लगा और उसके ब्रेन में नस फट गई यानी ब्रेन हेमोरोज
हो गया. डाक्टरी उपचार के दौरान उसके प्राण पखेरू उड़ गए.
दूसरी घटना में लेग पर खड़े
अंपायर को बेट्समेन की स्ट्रोक मारी हुई गेंद लगी और उपचार के दौरान वे भी चल बसे.
माना दोनों घटनाएं अनहोनी
के दायरे में आती हैं किंतु अनहोनी की पुनरावृत्ति इतने कम समय में होना भी तो एक अनहोनी
ही है.
कभी जब विवियन रिचर्ड, रोहन
कन्हाई, गेरी सोबर्स, पीटर पोलक, ग्रेम पोलक, एडी बार्लो के खेल को देखते या सुनते
थे (तब टी वी भारत में नहीं आया था). तो खेल में कितनी सफाई से तेज गेंद को दिशा
देकर चौके छक्के लगाए जाते थे, ब्रेडमेन को देखने सुनने का मौका नहीं मिला केवल
पढ़ा है और कुछ पुराने रिप्ले जो टी वी में आए देखे हैं. इस बात पर चर्चा होती थी.
किसने कितनी आसानी से छक्का मारा या गेंद को चौके के लिए दिशा दी, इस पर भी चर्चा
होती थी. वैसे ही भारतीयों में दिलीप सरदेसाई, एकनाथ सोलकर, आबिद अली, अजीत
वाडेकर, गुंडप्पा विश्वनाथ, सुनील गवास्कर व अन्यों के खेल में भी नजर आता था. गेंदबाजी में बिशन सिंह बेदी की निगेटिव बॉलिंग
( जो रन न बनाने दे), चंद्रशेखर की गुगलियाँ आज भी याद आती हैं. तब किसी बेट्समेन
द्वारा ऑप साईड की बॉल को लेग साईड में मारने से या गलती से चले जाने से बड़ी
आलोचना होती थी अब तो यह भी एक खास स्ट्रोक बन गया गहै – जैसे रिवर्स स्वीप.. गजब.
धीरे धीरे खेल में तकनीक
पाछे रह गई और ताकत सामने आ गई. शरीर-सौष्ठव का प्रयोग -- कितनी जोर से मारा या
कितनी तेज गेंद फेंका से नापी जाने लगी है. फलाँ मीटर लंबा छक्का मारा का रिकार्ड
बन रहा है. माईकल होल्डिंग, एंडी रॉबर्ट, जॉन स्नो... इत्यादि तेज गेंदबाजों के
समय से गेंद की गति एक खास आँकड़ा बन गई. स्वाभाविक तौर पर पहले पहल तेज गेंदबाजों
को ज्यादा विकेट मिलने लगे ,. हो सकता है उन दिनों खिलाड़ियों को भी डर लगता था. धीरे
धीरे यब बॉड़ी लाइन बॉलिंग का रूप धारण कर गई. खिलाड़ी अपने को बचाएगा या खेलेगा. अब
खेलने के लिए दुनियाँ भर के आग- रक्षक पहनने पड़ रहे हैं. पहले लोग बिना हेलमेट के
खेलते थे. अब हाल देखिए.. हेलमेट पहन कर भी गेंद की चोट से मारा गया.
यह बात बिलकुल सही ही है कि
किसी भी खेल में जीतने की तैयारियाँ युद्ध स्तर पर होनी चाहिए. लेकिन आज युद्ध
स्तर की तैयारियाँ नहीं, युद्ध ही हो रहा है. शारीरिक बल के कारण खेल का मुखौटा ही
बदल गया है. भारतीय हॉकी की कद्र अब कितनी है, सो देख लीजिए. तब के पेले, ध्यानचंद,
डॉन ब्रेडमेन, डियागो मेराडोना के खेल की तुलना आज के लारा, सचिन जयसर्या से क्या
करें. जैसे 1950 में मेटर्रिक पास की अंग्रेजी या हिंदी भाषा में पकड़ आज के एम ए
से बेहतर है उसी तरह पुराने खिलाडियों का खेल आज के खिलाड़ियों से बेहतर है. मेरी
राय में दोनों की तुलना करना न्यायसंगत ही नहीं है.
क्रिकेट ही नहीं हर खेल का
यही हाल है. मेराडोना और पेले के खेल से तुलना कीजिए, आज के खिलाड़ियों की. एक के
पास तकनीक थी दूसरे के पास ताकत और दम (स्टेमिना) है. खेलों की तासीर ही बदल गई
है. पहले शारिरिक सौष्ठव बनाए रखने के लिए
केल खेले जाते थे अब खेल खेलने के लिए शारीरिक सौष्ठव बनाया जाता है.
इस पर भी ब्रॉयन लारा और
सहवाग जैसे खिलाड़ी (कभी इसी तरह चोटिल हुए अंशुमन गायकवाड़ भी) आज भी कह रहे हैं
कि यदि क्रिकेट से बाउंसर हटा दिए गए तो खेल का मजा खत्म हो जाएगा. बाउंसर खत्म हो
या न हो बात अलग है किंतु अब लोगों को इस बात का एहसास हो जाना चाहिए कि खेल में शारीरिक
बल. दम के कारण जो तकनीकी गिरावट आई है उससे खेलों को बहुत नुकसान हुआ है. खेल में
खेल भावना भी उतनी ही जरूरी है जितना युद्ध स्तर की तैयारियाँ. आज यदि भारत – पाक का
कोई भी मैच हो – भावनाओं के तेवर इतने बढ़ जाते हैं जैसे भारत पाक में युद्ध छिड़
गया हो. खेल की गुणवत्ता पर कोई नहीं सोचता सब चाहते हैं मेरा देश जीते. यह सही है
कि अपने देश के प्रति सबका लगाव होना चाहिए लेकिन इतनी भी नहीं कि अच्छे खेल के
बावजूद अपने देस की टीम के हार को दूसरों को सहा न जा सके और ऊल जलूल वक्तव्य देते
रहे.
पहले खेल फिर देश फिर टीम
शायद सही श्रेणी होगी.
खेल के अधिकारियों को अब कम
से कम इस ओर ध्यान देना चाहिए ताकि खेलों की गुणवत्ता को वापिस लाया जा सके.
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एम आर अयंगर.
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दम,शारीरिक सौष्ठव, युद्ध.
पहले शारिरिक सौष्ठव बनाए रखने के लिए केल खेले जाते थे अब खेल खेलने के लिए शारीरिक सौष्ठव बनाया जाता है.
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