पारंपरिक होली
पिछली होली में हमने कोई पेड़ नहीं काटा.
सोचा इस बार कुछ नया करें,
पर कुछ सूझा नहीं
कि करें तो क्या नया करें.
कुछ खास रास नहीं आया.
फिर सोचा चलो ,
नया नहीं तो न सही,
कुछ पुराना ही,
वास्तविकता लिए हुए करें.
गाँव चला आया,
बुजुर्गों से चर्चा – परिचर्चा की,
सलाह मशविरा किया.
जाना कि होली असली रूप में,
कैसे मनाई जाती थी.
पारंपरिक होली की विधी जानी,
खेतों को जोत – जुता कर,
हल चला-चलवाकर,
सारे ठूँठ इकट्ठे किए,
गाँव के खेल में ही
उन्हें एकत्रित कर
उनसे ही होलिका बनाया,
गाँव के घरों से सभी को आमंत्रित किया,
पारंपरिक साज सज्जा के साथ,
सभी बहनें, बहुएँ,भाभियाँ,
माताजी, मौसीजी,
मामीजी,फूफीजी,
नानीजी, दादीजी,
सारे, अपनी अपनी तरह से
सज-धज कर,
सजा धजा कर ,
पकवान भी लेते आए,
भैयाजी, दामाद जी,चाचा-ताऊ,
मामा- फूफा, सारे बुजुर्ग,
सभी सफेद धवल वस्त्रों में,चमकते हुए,
गुलाल संग लाए,
पूजा के बाद ,
गाँव के सबसे बुजुर्ग
के हाथों होलिका दहन करवाया,
स्त्रियों ने अपनी तरह से ,
विधि- विधान से पूजा की
सारे चुन- मुन
बालक-बालिका वृंद की मस्ती
तो बस देखने लायक थी,
होलिका दहन-पूजन के बाद,
सभी ने उसमें अपने-अपने खेत की
धान की बालियाँ पकाया,
आपस में बाँटा,
फिर बताशे, इसायची दाने,
मिठाईयाँ बँटी,
बच्चे-बड़े, स्त्री –पुरुष,
आपस में गुलाल खेला,
आपसी बैर भूलकर गले मिले,
सारे गाँव वासियों ने खूब आनंद किया
सबने एक ही स्वर में कहा ,
बबुआ, कित्ते बरस बाद,
ऐसन होली मानाए हैं रे.
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एम.आर अयंगर.
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