राजनैतिक उलटफेर
स्वतंत्रता के बाद 2013 के विधान सभा
चुनावों ने वह कर दिखाया, जो राष्ट्र पिछले समय तक नहीं कर सका. स्वतंत्रता की
परिभाषा वापस आई सी लगने लगी है. स्वतंत्र का मतलब रह गया था - जो तंत्र बनाते हैं
उनका तंत्र. वह सही मायने में भारतीयों का तंत्र नहीं था. भारत आर्थिक दृष्टि से
गरीब देश भी नहीं है. यदि ऐसा होता तो रॉकेट साइंस कहीं टोकरी में पड़ा रहता. केवल
प्राथमिकताएं अलग थीं. कांग्रेस की सरकारों की देखा-देखी आगे की सरकारें भी
इसे अपना ही तंत्र मानने लग गई थीं. राजनेताओं का भला होता रहा. स्विस बैंक में
रखे पैसों की बात बताती है कि भारत गरीब नहीं है. जनता की जरूरतों से ज्यादा
प्राथमिकता अन्य विषय हो गए हैं.
जो बदलाव आया है उसका महत्तम श्रेय मैं कांग्रेस
पार्टी को देना चाहूंगा. फिर भाजपा को. अन्य राजनातिक पार्टियां भी इसकी
हकदार हैं पर कम. यदि कांग्रेस सरकार का काम ऐसा नहीं होता तो शायद गैर
राजनीतिक जनता इस पर न इतना ख्याल ही करती और न ही बवाल मचता. पिछले कुछ अरसे से
जिस तरह के स्कैम (घपले) की बातें सामने आए हैं उसने जनता को झकझोर कर रख दिया.
रालेगण सिद्धि के एक व्यक्ति अन्ना ने हिम्मत भरी और कर गए
अनशन. जो लोग नेतृत्व का इंतजार कर रहे थे, उनको मौका मिला और साथ हो लिए. अन्ना
टीम तैयार हुई. रामलीला मैदान व जंतर मंतर पर प्रदर्शन हुआ. इससे जनता खुलकर सामने
आई. वहीं अनशन के एक हिस्से ने राजनीति में जाने व राजनीतिक पार्टी बनाने की सोची.
अन्ना गैर – राजनीतिक रहना चाहते थे सो अन्ना सहमत नहीं हुए और दो फाँक हो गए.
नतीजा हुआ “आप” पार्टी. इस पार्टी के कामकाज का तरीका अनोखा और भारतीय
राजनीति में अनदेखा था. पार्टी ने पहले बगावत किया और दिल्ली राज्य को चुनकर उसकी
जनता से घर घर जाकर मिली. अपना उद्देश्य बताया. साथ देने का आग्रह किया. जगह जगह
सभाएँ की और जनता को अपने आंदोलन से जोड़ने का भरसक प्रयास किया. जनता की समस्याएं
सुनी गई . उन्हे कुछ आश्वासन दिए गए. फिर जनमत का आकलन कर सारी दिल्ली के विधानसभा
क्षेत्रों के चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे.
उन्हे शायद पूरी जीत की उम्मीद भी नहीं थी, फिर भी 15 से 18
सीट पाने की उम्मीद थी. किंतु चुनावों के नतीजों ने तो पुराने पार्टियों में
बौखलाहट पैदा कर दी. कांग्रेस तो सिमट ही गई और भाजपा बहुमत से रह गई. आप अस्तित्व के साल भर से पहले ही
दिल्ली की दूसरी बड़ी पार्टी वनकर उभर आई. भाजपा की हालत तो ऐसी हो गई कि सबसे
बड़ी पार्टी होने के बाद भी समर्थन के आभाव में वह सरकार बनाने लायक नहीं रह गई.
बात अब चुनावों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी आप पार्टी पर आकर रुकी. पहले तो
आप अपने विचारों पर रहकर कह गई कि हमें बहुमत नहीं मिला है सो हम सक्षम सरकार
नहीं बना सकते या नहीं बनाएँगे. भाजपा
को सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते उप राज्यपाल का निमंत्रण मिला और भाजपा
यह कहकर बाहर आ गई कि उसके पास बहुमत सरकार बनाने के लिए का जनादेश नहीं है. अब बारी आई आप की. उपराज्यपालके
निमंत्रण पर असमंजस में उनने उपराज्यपाल से समय माँग लिया. शायद यहीं पर निर्णय
गलत हो गया.
आप ने कांग्रेस और भाजपा को अपनी
शर्तों के समर्थन का पत्र लिखा. अब कांग्रेस ने अपने पत्ते खोले और कहा कि
हम आप पार्टी को निशर्त समर्थन देने को तैयार हैं. शायद आप ने सोचा भी नहीं
था कि सरकार बनने की नौबत भी आ सकती है. लेकिन जनता का भरोसा उन्हें उसके करीब ले
आया. कांग्रेस के समर्थन से आप को सरकार बनाने के लिए आवश्यक
विधायकों की पूर्ति हो गई थी.
अब आई आप पर दुविधा. सारी ताकतें उसे सरकार बनाने
हेतु मजबूर करने लगीं. आप ने अपने तरीके आपनाए कि काँग्रेस के जाल में न फँसें और
इसलिए जनता के पास दोबारा गई – पूछने कि इन परिस्थितियों में हमें सरकार बनाना
चाहिए या परहेज करना चाहिए. उधर भाजपा ने जवाब में 14 सवाल पेश किए. अब
देखना है कि होता क्या है...
यह रहा एक पहलू. दूसरा यह कि किसी ने भी नहीं सोचा था कि आप
की करिश्माई का इतना असर हो जाएगा. खुद आप ने भी 15-18 सीटों की कल्पना ही की थी. कांग्रेस
तो पूरी उखड़ ही गई. भाजपा की हालत शायद कांग्रेस से बेहतर थी, इसलिए वह
पूरी तरह नहीं उखड़ी. पर फर्क तो लाजवाब पड़ा. उधर अन्ना लगे थे अपने अनशनों में.
इधर आप कमाल कर गई. पुरानी राजनीतिक पार्टियों के पास झुकने के अलावा कोई
रास्ता नहीं बचा. पर चेहरा भी तो बचाना है ना. इसलिए भाजपा और कांग्रेस
ने अन्ना को मनाने के लिए लोकपाल बिल का सहारा लिया. इसमें कई फायदे थे.
पहला कि अन्ना खुश होंगे. दूसरा केजरीवाल का कद कम होगा.
मान लिया तो मुश्किल न माना तो मुश्किल. तीसरा
(सबसे आहम) जनता खुश होगी. और चौथा – 2014 के लोकसभा चुनाव में मुद्दा
मिलेगा कि हमने यह कर दिया. इस वक्त दो ही मख्य मुद्दे नजर आते हैं. एक जनता को
कैसे खुश किया जाए और दूसरा केजरीवाल का कद कैसे कम किया जाए. दोनों ही पार्टियां
अपने अपने व्यवहार में बदलाव ला रही हैं और श्रेय जनता को जा रहा है.
पहले कभी जनता को कोई श्रेय मिला है ऐसा मुझे याद नहीं.
पार्टी जीतने के बाद भी जनता की आभारी रहती थी कभी नहीं कहा कि यह जनता की जीत है.
श्रेय तो पार्टी के कार्यकर्तओँ को ही जाता था.
चुनाव के तुरंत बाद काँग्रेस को लगा लोकपाल एक अच्छा
निर्णय है देश को इसकी जरूरत है और इसे एकजुट होकर पास करवाना चाहिए. कई वर्षों से
रुका लोकपाल बिल दो दिन में संसद से पारित हो गया. और अब लोकपाल पास कराने का श्रेय
जनता को है.
अमरीका में भारतीय दूतावास के महिला अधिकारी के साथ तथाकथित
गलत व्यवहार में भारत की इतनी कड़ी भूमिका रही है. यह भी अनोखा है.
बहुत समय से कोशिश कर रहा भारत अचानक टेगो में बंधक जेम्स
की रिहाई में भारत तत्क्षण सफल हो जाता है.
भाजपा के प्रधानमंत्री मनोनीत श्री मोदी
जी की आवाज दबी रह जाती है.
भाजपा ने पहले कहा कि सबसे बड़ी पार्टी
होने के करण सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत करेंगे लेकिन ऐन मौके पर हालात भाँपकर –
उपराज्यपाल के निमंत्रण पर भी पीछे हट गई.
अंततः जनता का भला हुआ.
इन सब की वजह से जितनी देर होगी – आप की मुसीबत उतनी
ही बढ़ती जाएगी. भारत में जनता को बाँधे रखना एक बहुत ही मुश्किल काम है. जनता की
याददाश्त भी कमजोर है. एक नया मुद्दा आया कि नहीं लोग पुरानी समस्या भूल जाते हैं.
पहली बार आप द्वारा ऐसा माहौल बनाया गया है . इसे कब तक बनाकर रखा जा सकेगा
यह आप पर ही निर्भर है. यदि नेता और कार्यकर्ता बिदके तो आप के लिए
खतरा हो सकता है. उन परिस्थितियों में आप के नेताओं को खासकर सोचना पड़ेगा.
ऐसे में कभी कभी विचार आता है कि यह परिस्थितियां 2014 के
लोकसभा चुनावों की वजह से है. यदि चुनाव नहीं होते तो क्या होता...
तब क्या कांग्रेस आप को समर्थन देती.
तब क्या आप सरकार बना लेती या पुनर्चुनाव को कहती...
यह सवाल काल्पनिक और जिरह का विषय है.
सबके अपने अपने मत हो सकते हैं.
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