संसद
बंद है.
हमारे देश के कर्णधार जब चुनाव लड़चते
हैं तो कोई रोक टोक नहीं होता. व्यवहार से वे जमीन पर होते हैं और वादों से सातवें
आसमान पर. बाकी बीच का इन दोनों के बीच ही रहता है. खर्च बेइंतहा करते हैं करोड़ों
की गिनती भी भूली जाती है भले चुनाव आयोग को लाखों का ही हिसाब मिलता है.
खास बात
यह है कि सारे के सारे नेता ऐसे ही हैं इसलिए कोई किसी पर लाँछन नहीं लगाता. जो
लगाता है वह नौ-सिखिया होने का प्रमाण दे देता है. सब को अपनी अपनी पार्टी का
समर्थन है. किसी किसी को पार्टी से आर्थिक सहायता भी मिलती है. इसलिए और शायद
इसीलिए वे जीते या हारें पार्टी के साथ फेवीक्विक लगाकर चिपके रहते हैं. हो सकता
है अगले चुनाव में फिर पार्टी का सहारा चाहिए. बात समझ में भी बखूबी आती है.
चुनाव लड़ने तक की बात तो ठीक है.
पार्टी के मनोनीत हैं तो पार्टी के साथ हैं. सारे चुने व हारे नेताओं का मकसद एक
ही होता है (भले कागजों पर ही हो) – देश की सेवा करना. कायदे से चुने जाने के बाद
उन्हें पार्टी से अलग देश की सेवा में लग जाना चाहिए, किंतु ऐसे तो कभी भी नहीं
होता. वे जीतने के बाद भी पार्टी के मनोरथ को बढ़ावा देने में जुटे रहते हैं. हर
पार्टी के हर नेता का यही रवैया रहा है और आज भी ऐसा ही है.
यदि सभी विजेताओं का मकसद देश की सेवा
ही था तो वे आपस में बैठकर सेवाओं की बात भले माहौल में करते क्यों नहीं दीखते ? प्रतिपक्ष का काम रचनात्मक विरोध है न कि सरकार
के हर बात का विरोध. विरोध नहीं बल्कि कहना चाहिए कि यदि प्रस्ताव में किसी तरह की
खामी हो तो उसके निराकरण के रास्ता सुझाने का काम प्रतिपक्ष का होता है. या फिर कोई नया अच्छा
प्रस्ताव लाना भी विपक्ष का काम हो सकता है. लेकिन यहाँ तो प्रस्ताव की बात पर
विपक्ष तो अविश्वास प्रस्ताव ही लाती है. और विरोध के नाम पर सरकार के हर प्रस्ताव
का विरोध करती है.
आज भाजपा के नेता, जिनकी सरकार है,
कहते नहीं थक रही है कि काँग्रेस संसद चलाने में बाधाएं उत्पन्न कर रही है. रक्षा
के मसले अटके हुए हैं वहाँ गुरुदासपुर में आतंकी हमला हुआ है लेकॉन काँग्रेस को
देश की कोई चिंता नहीं है.
थोड़ा पीछे जाईए तो नजर आएगा कि पिछले
दशकों से दूसरी पार्टियों ने यही किया है. काँग्रेस को विपक्ष का बहुत ही कम अनुभव
है. जो उनने विपक्ष को करते देखा, जिन पर उनने फब्तियाँ कसीं, वही काम वे आज खुद
कर रहे हैं. विपक्ष से सीखा, किंतु जो उनको नागवार था वही कर रहे हैं. विपक्ष पर
लाँछन था कि वे संसद का समय नष्ट कर रहे हैं. देश की जनता के (करदाताओं) पैसों का
दुरुपयोग हो रहा है. फिर भी आज उन्हें लेश मात्र भी दुख-रंज नहीं है कि वे भी वही
कर रहे हैं और पक्षकार भाजपा उन पर वैसा ही आरोपण कर रही है जैसा वे पक्ष में रहकर
प्रतिपक्ष भाजपा पर करते थे. सही मायने
में कुछ नहीं केवल पात्राभिनय बदला है.
संसद चलना चाहिए. इसमें दो मत तो नहीं
हो सकते. पर चल नहीं रही है. भाजपा कहती है कि कांग्रेस चलने नहीं दे रही है. कांग्रेस
कहती है कि जब तक स्वराज व विजयराजे के इस्तीफे नहीं आते संसद नहीं चलने देंगे.
जिरह के लिए ही सही माना काँग्रेस गलत है. तो फिर संसद चलाना उतना ही जरूरी समझती
है तो भाजपा इन दोनों का इस्तीफा क्यों नहीं पेश करती. संसद चलाने की जिम्मेदारी सरकार
पक्ष की ज्यादा और विपक्ष की कम आँकी जा सकती है क्योंकि सरकार को ही प्रस्ताव रखना
और पास कराना होता है. मुद्दों के मद्देनजर संसद चलाना, इनके इस्तीफे बचाने से
ज्यादा अहम काम नहीं है, इसलिए वे भी कोई पहल नहीं कर रहे हैं. सब जानते हैं कि
दूसरों पर दोष मढ़ देना आज के युग की सर्वोत्तम राजनीति है. अन्यथा इनके इस्तीफे
सदन में पेश कर संसद चलाया जा सकता था. पेशी होती रहे , जब बात साफ हो जाए तो
इस्तीफे मंजूर या नामंजूर हो सकते थे. लेकिन नहीं, भाजपा ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि
यह अब नाक की लड़ाई बन चुकी है. बात पाक साफ है कि किसी को देश की सेवा नहीं करनी
है. पहले पार्टी की सेवा जरूरी है. यह बात और है कि पार्टी की सेवा के साथ ही
स्वयंसेवा भी जुड़ी हुई है. राष्ट्र तो बाद में आता है.
यह भाजपा पर इस्तीफों के कारण आए
राजनीतिक संकट से ध्यान बँटाने व उबरने का एख सार्थक प्रयास सा लगने लगा है.
क्यों ये देश के कर्णधार चुनाव जीतने
के बाद अपनी पार्टी के लबादों से बाहर आकर एक जुट होकर देश की खातिर काम नहीं कर
पाते?
इस दूषित मानसिकता का कोई समाधान
निकालना होगा, तभी हमारा देश प्रगति पथ पर तेजी से अग्रसर हो सकेगा.
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अयंगर.