मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

मतदान या मताधिकार ?????


मतदान या मताधिकार  ?????

सन 1952 से, यानि जब से भारत का संविधान ईजाद हुआ है, हमारे राष्ट्र में चुनाव होते आए हैं. वैसे तो हर पाँच सालों में चुनाव होने चाहिए. पर किन्हीं अपरिहार्य कारणों से इससे परे भी हुआ है. सरकार से समर्थक दलों के समर्थन वापस लेने के कारण भी सरकार गिरि है. फलस्वरूप चुनाव हुए हैं. हर बार भारत के नागरिक मतदान करते है और चुने हुए साँसद (लोकसभा के परिप्रेक्ष्य में) मिलकर सरकार का गठन करते हैं. जिस पार्टी के नेता ज्यादा समर्थन जुटा लेते हैं उनकी सरकार होती है. वे आपस में प्रधानमंत्री और अन्य महकमों के मंत्री , उपमंत्री, राज्यमंत्री जैसे पद तय करते हैं - जो प्रधानमंत्री के प्रति जिम्मेदार होते हैं और प्रधानमंत्री देश की जनता के प्रति.

यह तो हुई किताबों की बातें – लेकिन धरातल पर हालात कुछ और ही हैं. चुने जाने के बाद सांसदों को जिम्मेदारी का आभास धीरे धीरे कम होने लगा है और आज के परिप्रेक्ष्य में यदि कहा जाए कि सांसदों को जिम्मेदारी का आभास नहीं है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. गिनती के ही कुछ साँसद बचे होंगे, जो अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वाह करते हैं. अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व वे केवल वोट बटोरने के लिए करते हैं तत्पश्चात् पूरे पाँच बरस बाद नजर आते हैं - ऐसे कई हैं. पर भारत की भोली भाली जनता उनका पंचवर्षीय तोहफा पाकर फिर मत उन्हें ही दान कर देती है.

हम कहते हैं कि भारत में साक्षरता बढ़ी है... मुझे तो लगता है कि साक्षर होने की अर्हता घटाकर साक्षरता के आँकड़ों में वृद्धि की गई है. जैसे यमुना के खतरनाक स्तर के निशान को ऊपर कर कह दिया हो कि यमुना जो कल खतरे के निशान से 4 मीटर ऊपर बह रही थी आज केवल दो मीटर ऊपर है. जनता सोचती है कि जल स्तर घटा है, लेकिन वास्तविकता यह होती है कि जल स्तर घटा नहीं बल्कि निशान ऊपर उठ गया है.

साक्षरता और लोक व्यवहार की क्षमता में जमीन आसमान का फर्क होता है.. हमारे बुजुर्ग साक्षरता में हमसे आगे हों या न हों पर लोक व्यवहारमें हमसे कहीं आगे रहते हैं. हाल ही में मैंने एक कविता पढ़ी है – जिसमें इसका बहुत ही बढ़िया वर्णन किया गया है. इस आशय के साथ अगले पोस्ट में संलग्न कर रहा हूँ कि इसके रचयिता को कोई आपत्ति नहीं होगी. (इसालिए इसके तुरंत बाद ही मेरी अगली पोस्ट होगी.)

केवल यही बात, कि आज भी हम मतदान करते हैं बताता है कि हम कितने व्यावहारिक हैं, जबकि हमें मताधिकार का प्रयोग करना चाहिए. मतदान नहीं करना चाहिए. दान के नाम पर हम तो अपना अधिकार खैरात में बाँट रहे हैं. हमें अधिकारिक तौर पर निर्णय लेना है कि कौन सा व्यक्ति समाज के लिए उपयुक्त है. आप जिस व्यक्ति को चुन रहे हैं वह आप लोंगों के भले के लिए कितना काम करेगा या साथ देगा. आप लोंगों की समस्याओं को ऊपर तक ले जाएगा या फिर चुने जाने के बाद मुँह फेर लेगा. यदि चुना हुआ व्यक्ति आपका साथ नहीं देता तो इसके लिए जिम्मेदार आप भी हैं. कुछ नहहीं तो कम से कम अगले चुनाव में सबक सिखाना भी आपका ही कर्तव्य बनता है.

साक्षरता और व्यावहारिकता की बात इसलिए कर रहा हूँ कि मताधिकार के प्रयोग के लिए व्यावहारिकता की भी जरूरत है, बनिस्पत कि केवल साक्षरता की. व्यावहारिकता में बुजुर्ग माहिर हैं. यदि आज के साक्षर कल के व्यावहारिक बुजुर्गों के साथ बैठ कर तय करें, तो दोनों के मेल मिलाप से बहुत ही बढ़िया समाधान पाया जा सकता है कि कौन हमारे लिए उपयुक्त है.

ध्यान रहे कि संविधान के तहत भी मत हमारा अधिकार है और मताधिकार का प्रयोग देश के प्रति हमारा कर्तव्य भी. इसलिए सोच समझ कर समय, वक्त एवं हालात के मद्देनजर हम अपने मताधिकार का सही प्रयोग करें – तो देश को एक अच्छी सरकार दे सकते हैं जो देश के नागरिकों की भलाई के लिए सोचे और काम करे.

लोगों के झांसे मे आकर मूल्यवान वस्तु के बदले अपना अमूल्य मत बरबाद ना करें. मदिरा, पैसे, तोहफे इत्यादि तो बार बार आते रहेंगे. इनकी उपयोगिता तो मर्यादित है, जो आपके निजी काम के लिए है..  अपने एक के स्वार्थ के लिए देश का अहित ना करें. देशहित को सर्वोपरि रखें एवं जनसामान्य के फायदे का काम करें. यदि मताधिकार का सही प्रयोग कर सही सरकार आई तो सारे देश के नागरिकों का फायदा होगा और देश भी उन्नति करेगा.

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एम.आर.अयंगर.

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2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 03-04-2014 को चर्चा मंच पर चर्चा " मूर्खता का महीना " ( चर्चा - 1571 ) में दिया गया है
    आभार

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