सोमवार, 24 मार्च 2014

मोदी लहर...

मोदी लहर...
          
हालातों से लगता है कि सबने अब मान ही लिया है कि इस बार चुनाव में कांग्रेस पार्टी जीत से काफी दूर है. लेकिन किसी ने भी नहीं कहा कि काँग्रेस विपक्ष में होगी...तो क्या यह मतलब निकाला जाए कि काँग्रेस विपक्ष में भी नहीं रहेगी. यदि हाँ तो पहला सवाल यह उठता है कि जनमानस पक्ष एवं विपक्ष के बारे क्या सोच रही है.

जहाँ पक्ष की बात करते हैं तो बात आती है देश में मोदी लहर की.... भाजपा कहती है लहर है और बाकी कहते हैं नहीं है... तरह तरह के सर्वे लेकिन मोदी को पक्ष में ही बात कर रहे हैं. यह मानना कठिन है कि सर्वे कितने भरोसे मंद हैं. लेकिन आज उपलब्ध भी तो यही हैं. मीडिया का भी खासकर यही कहना है कि अगला राज मोदी-राज होगा.

मोदी के भाषणों में केवल काँग्रेस पर धावा बोला जाता है. बाकी के बारे कुछ कहते ही नहीं. उनकी दुश्मनी केवल काँग्रेस से प्रतीत होती है. कांग्रेस के भाषणों में मुख्यतः भाजपा का एवं समान्यतः क्षेत्रीय पार्टियों एवं आप पार्टी का विरोध होता है. भजपा के वक्ता आप पार्टी या केजरीवाल का नाम भी नहीं लेते. शायद उनकी नजर में आप पार्टी अस्तित्वहीन और केजरीवाल नगण्य हैं या फिर उनका नाम लेने से मचने वाले बवाल से भाजपा नेता डरे हुए हैं. हाल के क्रिकेट मैचों में दिए जा रहे भाजपा प्रसारण इस बात की गवाही देते हैं. भाजपा आप पार्टी के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपना हक जमाने की कोशिश कर रही हैं. क्या जनता अनभिज्ञ है इन बातों से ?


इधर केजरीवाल अन्ना से बिखरकर आप पार्टी लाए. पार्टी की विचारधारा और घर घर संपर्क से दिल्ली के विधानसभा चुनावों में अनहोनी कर गए. 14 साटों की उम्मीद कर 28 सीट पा गए. अपने – किसी को समर्थन न देने और समर्थन न लेने के – निश्चय से हटकर, भागने का रास्ता न पाकर, कांग्रेस से समर्थन को स्वीकारा और सरकार बना गए. शायद यही उनकी पहली और प्रमुख भूल थी. उसके बाद इस गलती को छिपाने - बचाने के लिए गलतियों पर गलतियाँ करते रहे. बहुत देर बाद समझ आया कि इस समर्थन से उनके वादों का काम हो ही नहीं सकता. जो हुआ सो भी आधा अधूरा रह गया – जिसके लिए मीड़िया एवं विपक्ष दोनों ने खूब खिंचाई भी की. अब उन्हें सरकार से भागने की जल्दी हो गई और अफरातफरी में कई कोशिश किए—कुछ सही तो कुछ गलत और अँततः जनलोकपाल बिल के मामले गलत तरीके से सरकार छोड़ दी. कई तो अभी भी कहते हैं कि सरकार छोड़ने का मुख्य कारण लोकसभा के लिए चुनाव प्रचार हेतु समय निकालना था.. जो सही नहीं लगता... चुनाव के लिए क्या अन्य मुख्य मंत्री समय नहीं निकाल रहे हैं.  शायद केजरीवाल कांग्रेस - भाजपा के कंधों में बंदूक रखकर गोली चलाना चाहते थे ताकि उन्हें सरकार छोड़ने का भावनात्मक फायदा लोकसभा के चुनावों में मिलता. विपक्ष ने ऐसा न हो पाने के लिए अपनी जोर लगा दी. अब चुनाव बताएँगे कि केजरीवाल को इस कदम से लाभ हुआ या हानि.
उधर काँग्रेस एक असरदार मुखिया की कमी से जूझ रही है...धाकड़ नेता मोदी लहर की खबर पाकर, शायद हार की डर से चुनाव लड़ना नहीं चाह रहे हैं. कांग्रेस आलाकमान ने कुछ को तो धर दबोचा और उन्हें चुनाव लड़ाया जा रहा है.  कुछ को राज्यसभा में मनोनीत करवाकर चुनाव लड़ाया जा रहा है. कुछ ने तो आलाकमान की भी नहीं मानी – कह गए चुनाव नहीं लड़ना है... पता नहीं क्या करने का इरादा है. और कुछ नैया डूबती देख कर, दूसरी नैया पर सवार हो गए. इस तरह काँग्रेस बिखरती सी दिखी. जिसने कांग्रेस की हार के सिद्धान्त को और बल दे दिया.

लौटते हैं भाजपा पर. सब तरफ शोर मचा रखा है भाजपाईयों ने और मीड़िया वालों ने कि देश में मोदी की लहर है. मुझे तो लग रहा है कि बुजुर्गों ने तो मोदी की हवा ही निकाल दी है. हो सकता है मोदी इन सबसे श्रेष्ठ हों पर इनके साथ ऐसा व्यवहार किसी – अपने आपको अनुशासनिक कहने वाले दल के शीर्ष कहे जाने वाले नेताओं द्वारा – बदनामी का पूरा पूरा कारण ही हैं. यदि इन्हें अलग करना था तो समय से पहले कदम उठाकर इनसे बात करते और मसले का सलह कर लेते . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अपने बुजुर्गों के साथ ऐसा बर्ताव व अपमान करने से इज्जत नहीं बढ़ती.  कल तक मोदी लहर की बात करते वक्त किसी तरह के अंदरूनी कलह की बात नहीं हुई अब जब टिकट धारकों की सूचियाँ आने लगीं तो सारा कालिख बाहर आ गया.  अब लगता है कि आप पार्टी से कहीं ज्याद कलह तो भाजपा में ही है. सबका रक्तचाप बढ़ा और संयम, सीमाएं लाँघ गया. इसी लिए लोग पूरी उत्कंठा से वाचाल हो रहे हैं. यह भाजपा को अच्छा खासा नुकसान पहुचा सकता है. ऐन मौके पर आकर उनसे बदतमीजी का सा व्यवहार किया गया . एक के बाद एक ... मुरली मनोहर जोशी, लालजी टंडन, करुणा शुक्ला, अड़वानी, जसवंत सिंह, शत्रुघ्न सिंहा, नवजोत सिद्धू सभी के साथ करीब करीब एक सा व्यवहार हुआ. ऐसा सुनने में तो आ रहा है कि सुषमा भी कतार में हैं.. आश्चर्य नहीं गुजरात की तो परंपरा ही बनी हुई है जो साथ न चले उसे अलग कर दो...क्योंकि नेता प्रत्य़क्ष रूप से काम करता है. गुजरात की राजनीति अब सारे देश की भाजपा में चल रही है और यदि सफल हुए तो सारे देश में चलेगी..इसमें कोई संशय नहीं हैं.

भाजपा शायद चूक रही है कि यह सब नेता अपनी पैठ रखते हैं और इनके निष्कासन का असर भाजपा पर पड़ेगा... शायद इसीलिए 300 + पहुँची भाजपा अब सीटों का शोर करने से परहेज कर गई है. एक बार ऐसी खबर भी आई थी कि बहुमत न मिलने पर सहयोगी दलों के समर्थन से बनी भाजपा सरकार में मोदी नहीं बल्कि चंद्रबाबू नायड़ू प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी होंगे क्योंकि सहभागियों को शायद मोदी रास न आए. यानि मोदी सरकार के दिल में कहीं न कहीं चोर छुपा है.

मीडिया और समाचार पत्रों की अपनी कहानी है. उनके लिए आज देश में केवल एक पार्टी है भाजपा. उनके रवैये से तो लगता है कि सारे भाजपा के प्रचारक हैं. इसकी उन्हें स्वतंत्रता है. इनमें न ही कोई कांग्रेस की बात करता है न ही आप पार्टी की और न ही क्षेत्रीय पार्टियों की. हाँ आप का ब्लैक आऊट साफ नजर आता है.  अरविंद ने कहा मीड़िया पक्षपाती है.. कम से कम आभास तो ऐसा ही हो रहा है. मीडिया ने तो क्षेत्रीय पार्टियों – तेलुगु देशम, वाई एस आर कांग्रेस, त्रिणमूल कांग्रेस, असम गणतंत्र परिषद, माकपा, बीजेडी, सपा, बसपा, डीएमके अकालीदल, आर जे ड़ी, लोक दल और जितनी छोटी छोटी पार्टियों का तो समाचारों से नामोनिशान मिटा दिया है.

अब लगने लगा है कि भाजपा अति आत्मविश्वास का शिकार हो गई है. यह किसी भी शक के दायरे से बाहर हो चुका है कि भाजपा को 300 से कम सीटें मिलेंगी.. शायद 272 तो मिल ही चुकी हैं जनता ना करे कि किसी कारण उन्हें 272 से कम सीटें आएँ और उन्हें अन्य क्षेत्रीय दलों का समर्थन लेना पड़े. यदि ऐसा हुआ तो जो दल नकारे जा रहे हैं क्या वे समर्थन देंगे और यदि हाँ तो किन शर्तों पर. शर्तों को कड़वा घूँट पाकर मानना भाजपा की मजबूरी होगी और सरकार तो ढ़ीली पड़ेगी ही. तो क्या आज युग पुरुष कहे जाने वाले मोदी प्रधान मंत्री बन पाएँगे ??? यह अति आत्मविश्वास न ही मोदी के लिए उचित है, न भाजपा के लिए और न ही देश के लिए. इससे परहेज करना चाहिए.

उम्मीद पर दुनियाँ कायम है, उम्मीद करें, प्रयत्न करें – लेकिन दूसरों को लात मारकर – मिटाकर नहीं. पीछे से कोई गाड़ी हार्न मार रही है तो बड़प्पन इसी में है कि उसे रास्ता दें और पास के लेन में अपनी गति से चलें. उसकी रफ्तार तेज होगी तो वह आगे बढ़ेगा..मान लीजिए... रास्ता रोककर खड़े रहने में कोई बड़प्पन नहीं है. रास्ता मत रोक्ए – लेन ब्लॉक मत कीजिए.  डॉ ईश्वर चंद्र विद्या  सागर ने एक बार  स्कूल में बोर्ड पर खींची लकीर को छोटा करने के लिए नीचे एक बड़़ी लकीर खींची थी. लेकिन आज की राजनीति में अपनी संभावित लकीर खींचकर फिर पहली को मिटाकर छोटी कर देना आम बात हैं. यही कुंठित मानसिकता हमें पनपने नहीं देती.अंजाम है कि आगे पाठ तो पीछे सपाट. हम चाँद पर यान भेज रहे हैं लेकिन आज भी गांवों मे बिजली, पानी , भोजन इत्यादि की कमी है.
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एम आर अयंगर.


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शनिवार, 15 मार्च 2014

आप - दूध का धुला.

आप - दूध का धुला.
केजरीवाल के मन में बहुत अच्छी बातें हैं, या कहें उनकी सोच बहुत अच्छी है. पर तकलीफ यह है कि - उनमें एक सिस्टम से प्रबंधित करने वाली काबीलियत की कमी देखी गई है. लगता है उनके हिसाब से उनसे बढ़िया मेनेज करने वाला है ही नहीं. यहीं पर गाड़ी पटरी से उतर जाती है. उनका राजनीति में आना भले अन्ना को नहीं भाया, पर यह एक अच्छी बात हुई. उनके आने से और शोर मचाने से लोग जागे तो सही. अब तक तो हम सब लोग सो ही रहे थे ... किसी के पास चिंता नाम की चीज थी ही नहीं, कि भ्रष्टाचार अपनी चरम के पार जा रहा है. क्योंकि सबके मन में यही बात थी कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे... केजरीवाल ने हिम्मत दिखाई. सारे देश को झकझोर के हिला दिया और लोंगों में चेतना जागी.
इसी नवचेतना का असर था - दिल्ली के विधानसभा चुनावों के अप्रत्याषित नतीजे. यह बात अलग है कि केजरीवाल अपने को मिले समर्थन को सही ढंग से सँभाल नहीं सके और कुछ बहक कर, काँग्रेस का समर्थन लेने के लिए स्वीकृति देकर फँस गए और उसके बाद सँभलने के लिए एक के बाद एक गलतियाँ करते गए.   प्रस्तुत सिस्टम को नहीं माना, तीखे - तीखे बयान देकर सबको, खासकर विपक्ष को अपने विरोध में खड़ा कर लिया..  जो सो रहा था उसे भी जगाकर, विरोध में खड़ा कर दिया. न काँग्रेस के समर्थन से सरकार बनती और न ही उन्हें कांग्रेस के समर्थन न मिलने के कारण बताकर (सही या गलत जो भी हो) इस्तीफा देना पड़ता. 
दूसरी बात यह कि केजरीवाल को अपने रास्ते ही मंजूर हैं. जो तुरंत संभव नहीं है. यदि आपको मुंबई से राजधानी में बैठकर कोलकता जाना है, तो पहले इस राजधानी का रास्ता बदलना पड़ेगा. अन्यथा आप इस राजधानी में बैठ कर कोलकता जा ही नहीं पाएंगे – दिल्ली पहुँच जाएंगे. लेकिन केजरीवाल चाहते थे कि जिस राजधानी में भी वे बैठें, वह उनकी जरूरत के अनुसार मुंबई से कोलकता ही जाए. जो हर बार, हर जगह अपने को एक आम आदमी बताते हैं, इस वक्त वे भूल जाते हैं कि वे आम आदमी हैं खास नहीं. इसलिए यह रेल अपने निर्दिष्ट रास्ते से ही और दिल्ली ही जाएगी.
केजरीवाल ने ऐसी ही चाल चली... जब प्रस्तुत विधानानुसार, दिल्ली में विधानसभा के प्रस्ताव – गृह मंत्रालय  के अनुमोदन के बाद ही रखा जा सकता है, तो वे किसलिए जिद कर रहे थे कि यह प्रस्ताव केंद्र में नहीं जाएगा और सीधे उप-राज्यपाल से होकर विधानसभा के पटल पर रखा जाएगा. शायद वे जानकर भी (ही) भागने का रास्ता खोज रहे थे. यदि उनमें जज्बा होता तो पहले जानकारी लेने के बाद केंद्र से आवश्यक तरीकों से चर्चा करते, केंद्र को मनाते या झुकाते – रास्ता बनाते और तब जाकर बिल उप-राज्यपाल से लाकर विधानसभा में पेश करते.  लेकिन उनने ऐसा नहीं किया. दो ही रास्ते थे – एक अभी के नियमों का पालन करो या नियम बदलकर अपनी इच्छानुसार करने के बाद, उस पर अमल करो. लेकिन नहीं, केजरीवाल चाहते थे कि कानून ताक पर रहे और मैं जैसा चाहूँ, वैसा हो.. यह कहाँ की नीति है. राजनीति की तो बात ही दिगर है. बनिया अपनी दुकान भी इस तरह नहीं चला सकता.
केजरीवाल मुँह फट तो हैं ही. जो दिल मे आता है कह जाते हैं. – बिना सोचे समझे. जो आंदोलनों के लिए तो ठीक हो सकता है, पर राजनीति के लिए नहीं. राजनीति में रहने कि लिए कम से कम जुबान की मिठास जरूरी है. किसी भी तरह नेता कहलाना हो तो जनता को साथ लेकर तो चलना ही पड़ेगा... कैसे .. यही तो आपकी खासियत है, महारत है. 
खुद केजरीवाल ने कहा था कि राजनीति कीचड़ है और उसे साफ करने के लिए राजनीति में यानि कीचड़ में उतरना जरूरी है.. तो फिर, कीच़ड़ तो लगेगा ही... ओखली में सर तो दे ही दिया... राजनितिक गतिविधियों में कभी - कभार जो उछल कूद होती है...उससे कीचड़ उछलता है. इसलिए कभी - कभी चेहरे पर भी लग जाता है. अभी तो किसी ने आप के नेता के मुँह पर कालिख (स्याही) ही मली थी, हो सकता है कभी चेहरे पर कीचड़ लग जाए.
इसा बात से जाहिर है कि राजनीति के रंग में रंगकर ही वे अपनी साख बना पाएंगे. दूध का धुला होने की छवि से कुछ नहीं होने वाला. लोहे को लोहा ही काटता है, तो राजनीति में फर्क लाने के लिए उन्हें पहले राजनीति के रंग में रंगना ही पड़ेगा. उसके बाद धीरे - धीरे सुधार लाने की सोचना और लाना ही एकमात्र तरीका लगता है. मैं नहीं कहता कि भ्रष्टाचार कम नहीं हो सकता, पर  उन्मूलन शायद ही संभव हो. लेकिन काफी हद तक कम तो किया जा सकता है. कोशिश करने में कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए. यह धीरे - धीरे ही हो सकता है ... झटके के साथ नहीं. झटके से करने के लिए समाज पर आपकी पकड़ इतनी मजबूत होनी चाहिए कि लोग अंध समर्थन को तैयार हैं या फिर हरेक डरा सहमा हो...अभी ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है.   जिसको पनपने में कम से कम 65 साल दिए उसके उन्मूलन में कम से कम 35 साल तो दीजिए... पर कोशिश लगातार होनी चाहिए.
केजरीवाल ने मुख्यमंत्री रहते हुए गणतंत्र दिवस के कुछ ही दिन पहले धरना किया.. सबने कहा वे अराजक हैं.. और जोश में केजरीवाल ने खुद भी कहा हाँ मैं अराजक हूँ... क्या यह कहना उचित था.. मुख्यमंत्री ऐसे काम कर रहा है जिसे वह खुद अराजकता फैलाना समझता है...खूब किरकिरी हुई .. पर आज देखिए उसके बाद कम से कम दो और मुख्यमंत्रियों (शिवराज ने तथा किरण रेडडी) ने, मुख्यमंत्री रहते हुए धरना दिया - पर किसी ने नहीं कहा कि वे अराजकता फैला रहे हैं. केजरीवाल के काम से लोगों ने सीखा है ... भले केजरीवाल के खाते में बट्टा लगा हो.
आप, अपने आपको समाज से जितना ज्यादा अलग रखेंगे उतना ही ज्यादा विपक्ष और मीडिया बाल की खाल निकालेंगे. आप सबसे अलग खड़े नजर आओगे, इसलिए आप पर सबकी तीखी नजर रहेगी. समान होने के लिए आपको उनमें से एक होकर रहना होगा. यदि आप सबकी ईमानदारी पर तीखी आलोचना करते रहेंगे, तो सब मिलकर आप की ईमानदारी की धज्जियाँ उड़ाने की कोशिश करेंगे ... फलतः आपको नुकसान ज्यादा होगा. यहाँ तक कि ऑटो वाले को 20 रु की जगह 18 रु देंगे या 22 रु दें – तो दोंनों हालातों में आप की आलोचना, अपनी-अपनी तरह से की जाएगी. सावन के अंधे को तो हरा ही नजर आता है ना..आप लोगों के निशाने पर होंगे और आपकी हर बात पर तीखी टिप्पणीयाँ की जाएंगी.. साथ रहकर   आप इन तीखी आलोचनाओं से बच सकते हैं...
कितने सरकारी मकान हैं जो पुराने बाशिंदों के कब्जे मैं हैं...कितनों का नाम अखबारों मे इस कारण आता है.. पर केजरीवाल का नाम तो आए दिन मुख पृष्ठ पर होता है – एक मार्च को खाली न करने के कारण 65 गुना किराया भरना पड़ सकता है...कोई तो बताए कितनों ने आज तक 65 गुना किराया भरा है...
केजरीवाल, अपनी पार्टी और पार्टी के कार्यकर्ताओं को दूध का धुला बताते हैं और बाकी सारों को कुछ - कुछ उपमाएं देते रहते हैं.. जैसे सारी पुलिस चोर है, विपक्ष बेईमान है - भ्रष्टाचारी है, मीडिया बिका हुआ है, कांग्रेस 65 सालों से देश को बेच रही है, भाजपा साप्रदायिक है.. दोनों अंबानी के पाकेटों में हैं.. बिजिनेसमेन लुटेरे हैं , दे  तो बचा कौन.. केजरीवाल के कथनानुसार मुकेश अंबानी जो देश को चला रहे हैं.. या शायद न्यायप्रणाली या कहिए न्यायपालिका...जिनके सहारे देश चल रहा है...बस, केजरीवाल और आप पार्टी के कार्यकर्ता जो मात्र बचे हुए ईमानदार और देशभक्त हैं जिनके सहारे कंधों पर हमारा देश चल रहा है.
केजरीवाल जी इस पर जरा सोचें... केवल ईमानदारी पर देश चलाया नहीं जा सकता. क्या विश्व में ऐसा कोई देश है जहाँ भ्रष्टाचार नहीं है... कहीं कम कहीं ज्यादा है, पर है सभी देशों में. शायद ही कोई देश भ्रष्टाचार उन्मूलन में पूरी तरह सफल हो सका है अब तक. सामाजिक प्रबंधन, आर्थिक प्रबंधन, कुशल प्रशासनिक प्रबंधन क्षमता, ईमानदारी, औद्योगिकता एवं प्रगति का सही सम्मिश्रण ही देश को आगे बढ़ा सकता है, पूर्ण प्रगति दिला सकता है.. किसी एक की अनुपस्थिति से प्रगति की दर घट जाएगी. समाज बिगड़ जाएगा. बेरोजगारी, गरीबी, महँगाई, बेईमानी व अपराध सभी, इसकी ही देन हैं. प्रगति की गति जनसंख्या वृद्धि की दर से ज्यादा नहीं होगी तो प्रगति का असर हो ही नहीं पाएगा. सामंजस्य में गड़बड़ी होने से देश एक क्षेत्र में काफी आगे बढ़ जाता है और दूसरे क्षेत्र में पीछे रह जाता है जिससे मुश्किलें पैदा हो जाती हैं.
हम चाँद पर मानव रहित राकेट यान भेज रहे हैं पर अभी भी देश के बहुत से कोनों में बिजली नहीं पहुँचती...हम आनाज का निर्यात कर रहे हैं, पर कई गरीब भूखे मर रहे हैं. ऐसा नहीं कि हममें इससे उबरने की काबीलियत नहीं है, पर हमारी प्राथमिकताएँ अलग हैं. हमारे देश को गोल्डन क्वार्डिलेटरल भी चाहिए और गावों की गलियों में सड़कें भी. कोलकता व दिल्ली के मेट्रो भी चाहिए और तामिलनाड़ु के बस भी चाहिए. गुजरात के सहूलियत एवं दिल्ली जैसी प्रमुखता - सभी चाहिए. गावों में भी शहरी विकास की सुविधाएं चाहिए.. और शहरो में भी गावों की आत्मीयता चाहिए.. क्यों नहीं हो सकती.. यह असंभव क्यों है.. केवल इसलिए कि हमारी प्राथमिकताए अलग है.. उनको खुदा मिले, है खुदा की जिन्हें तलाश.. हम बोएं पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय...   इसलिए सामंजस्य बहुत जरूरी है.. जिसे आज तक अनदेखा कर दिया गया है.
चलिए लौटते हैं..इधर राखी बिड़लान के कार का शीशा टूटना या सोमनाथ भारती का गाँव में जाकर रात को किसी घर की तलाशी करवाने की कोशिश, या आप के विधायक के किराये घर के मालिक के बहू को जलाया जाना .... मामलो में आप के नेताओं पर लगाए गए आरोप – देश के कई अन्य नेताओँ पर लगे आरोपों की तुलना में बहुत ही तुच्छ हैं पर कीचड़ आप के नेताओं पर ज्यादा उछला. क्यों... कई नेताओं  के समर्थकों की भीड़ ने काफी कुछ नुकसान किया है. यह आज की बात नहीं, इस देश की परंपरा रही है.. और तो और कहा जाता रहा है.. कि समर्थनइतना ता कि इकनी पुलिस भी नियंत्रित नहीं कर पाई. नेता के चार चाँद लग जाते थे.. लेकिन केजरीवाल के मुंबई दौरे पर जो हुआ आपने देखा ... उन पर शायद केस दर्ज किया गया है और मुंबई पुलिस नुकसान वसूलने की कह भी रही है.,  क्यों .. केजरीवाल जी शांति से सोचिए.. केवल इसलिए कि आप अपने एवं अपनों को दूध का धुला बताते है.. बाकी नेता ईमानदारी की कोई बात ही नहीं कहते. कोई इसकी चर्चा तक नहीं करता. वे केवल इतना कहते हैं कि - इस मामले में मैं दोषी नहीं हूँ. और दोषी पाया गया तो ... इस्तीफा दूंगा, राजनीति  छोड़ दूंगा.. इत्यादि इत्यादि.. एकाध का नाम तो बताईए.... कितने नेताओं ने ऐसा कहा... कितनों की जाँच सामने खुलकर आई और दोषी पाए जाने पर कितनों ने इस्तीफा दिया या राजनीति छोड़ी... आप हैं कि .. ढ़ जाते हैं.. दूध के धुले जो हैं..  पता नहीं कितने विराजमान व पूर्व केंद्रीय मंत्रियों पर कितने कितने बड़े आरोप लगे हैं. लेकिन कोई नगाड़ा नहीं पीटता.  अपनी ईमानदारी का, पर आप हैं कि चुप नहीं रह सकते और अपने को ईमानदार और बाकी सभी को बेईमान साबित करने पर तुले हैं. सो सबकी तिरछी नजर आप पर है और आप झेल रहे हैं. जितना छीछालेदार आज सुब्रत राय और लालू की हो रही है, उससे कहीं ज्यादा लोग आप के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर पिले हुए हैं. कारण केवल एक... आप के नेता और कार्यकर्ता को केजरीवाल दूध का धुला बताते हैं.. और चाहते हैं कि उनके हिसाब से (बाकी सारे) बेईमान भारतीय एक झटके में ईमानदार बन जाएं. देश का भ्रष्टाचार उनके आदेश से ही खत्म हो जाए..
एक बार और याद दिलाना चाहूँगा केजरीवाल जी आप राजनीति में आए हैं.. अब राजनीतिज्ञ हैं किसी स्कूल या कालेज के टीचर, प्रोफेसर या प्रिंसिपल नहीं.
लक्ष्मीरंगम.





शुक्रवार, 14 मार्च 2014

बेरोजगारी --- हमारा नजरिया.

बेरोजगारी --- हमारा नजरिया.

देश में बेरोजगारी की समस्या आजादी के दिन से ही है. तरह तरह के 

प्रयासों से नौकरियों में बढ़ोत्तरी की गई, पर अंततः वे जनसंख्या वृद्धि की 


दर से कम ही रह गए. फलस्वरूप बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ती ही गई और आज देश के सामने एक विशाल व गंभीर समस्या बनकर खड़ी हो गई है.

 गरीबी और बेरोजगारी का काफी निकट संबध है... करीब करीब सारे बेरोजगार गरीब हैं. कम ही ऐसे हैं जो बेरोजगार इसलिए हैं कि पूर्वजों ने इतना कमा लिया है कि बैठकर खाने पर भी काम चल जाएगा. इसके बावजूद भी आती कमाई को कौन छोड़ना चाहेगा. कम है, फिर भी कुछ तो हैं. किंतु मैं उन्हें बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं मानता क्योंकि वे रोजगार पाना ही नहीं चाहते.

 बेरोजगारी पर सबसे बड़ी पहल औद्योगीकरण है. कई नए नए उद्योग खुले. इसी उद्देश्य से सरकार ने भी सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किए. नेहरू जी ने तो इन्हें औद्योगिक मंदिर कहा. इसे थोक में बेरोजगारी कम करने की कवायद कही गई. कई ऐसे औद्योगिक घरानों ने निजि व साझेदारी के उपक्रम भी शुरु किए. लेकिन थोक का यह अंदाजा शायद सही नहीं बैठा और हम रोजगार उपजाने में जनसंख्या वृद्धि की बराबरी नहीं कर सके. इसी कारण इतने उद्योगों के आने के बाद भी बेरोजगारी अपना मुँह बाए खड़ी है ... हमारे प्रयासों का अट्टहास करते हुए.

 कई दुकानदारों के आश्रितों ने, जो पापा-ताऊ-दादा की दुकान सँभाल रहे हैं, अपना नाम बेरोजगारों में लिखा रखा है... बेरोजगार तो उन्हें कहना चाहिए - जो 18 की वय से ऊपर हैं और 60 की वय से कम हैं, नौकरी पाना चाहते हैं और बिना नौकरी के हैं. एक 16 साल का बालक पढ़ाई छोड़ कर बेरोजगार नहीं कहला सकता क्योंकि यह बाल मजदूरी कहलाएगी और वैसे ही एक 65 साल का बुजुर्ग (रिटायरमेंट की वय से बड़े) बेरोजगार नहीं कहला सकता. यह कानूनी तो अपराध नहीं है पर वे रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुके हैं. इनको भी मैं बेरोजगारों की श्रेणी में नहीं मानता.
 चलिए अब करें कुछ काम की बात. देश में नौकरियाँ जो बढ़ी हैं उनके बारे में. किसी महकमें में माना 10 पद हैं. हर पद के अपने अपने काम तय हैं. हर पद का कर्मचारी उस पद के अनुसार जिम्मेदारी निभाता है  पदानुसार आवश्यक कार्य निष्पादित करता है और तनख्वाह पाता है.

 अब नौकरियों की संख्या बढ़ाने के लिए नए उद्योग चाहिए जो आवश्यकतानुसार उपलब्ध नहीं हैं. इसके कई कारण हैं. उन पर हम बाद में जाएंगे. जहाँ नए उद्योगों की भर्ती के बाद भी लोग बेरोजगार रह गए तो हमने 10 पदों को तोड़कर 25 कर दिए. इससे पद संख्या बढी. उस पर हमने बेरोजगारों को नौकरी देकर तैनात कर दिया. पद के अनुसार सब को तनख्वाह भी दी जानी है. इसकी वजह से 10 पदों पर कार्यरत कर्मचारी का काम अब 25 पदों पर कार्यरत कर्मचारी कर रहे हैं ... मतलब... जो काम 10 लोगों को तनख्वाह देकर हो सकता था अब 25 को तनख्वाह देकर करवा रहे हैं. यानि लोगों का काम कम कर दिया पर तनख्वाह नहीं. तिस पर भी मँहगाई की मार के कारण तनख्वाह बढ़ाने की बात होती है और कई जगहों पर सरकार ने माना भी है. सरकार की तो यह मजबूरी है क्योंकि नौकरियाँ उपलब्ध कराई नहीं जा सकीं तो इस तरह से काम चलाया जा रहा है. 

नौकरियों को टुकड़ों में बाँटने का खेल केवल सरकारी महकमों में खेला जा रहा है . इसलिए निजू व सहकारी संस्थानों में उत्पादकता घटी नहीं है. वे ज्यादा पगार दे पा रहे हैं और काम भी घिस कर ले रहे हैं. अब ऐसी हालातों में सरकारी उद्यमों का निजी या सहकारी उद्यमों से तुलना करना कितना उचित है यबह आप सोचें.

 एक और उदाहरण है मनरेगा का. जिसमें मशीन से जल्दी होने वाले काम को मजदूरों से कराया जा रहा है ताकि रोजगार के साधन बढ़ें. लेकिन यह सोचा नहीं जा रहा है कि मशीनों से काम होने दिया जाए एवं इन बेरोजगारों के लिए नए उद्योंगो से नौकरियां बढ़ाई जाए.

 ऐसा कर हम अपनी उत्पादकता कम कर रहे हैं. देश में जो काम कम खर्चे में हो सकता है, वही काम ज्यादा पैसों से हो रहा है. उत्पादकता कम होगी तो चीजों की कीमतें बढ़ेगी .. यानि मँहगाई बढ़ती जाएगी.

 अब बात आती है नए उद्योगों से नौकरियाँ बढ़ाने की. उद्योग जब देश की जरूरत है, तब सरकार को चाहिए कि आवश्यकता अनुसार सुविधाएं भी उपलब्ध कराए जाएं. लेकिन हमारी सरकार के रवैये ने उद्योगपतियों के नाक में दम कर रखा है... सुविधाएँ तो दूर, कर भी भरमार होते हैं इनके अलावा जो सामाजिक बीमारियाँ हैं सो तो हैं. जब उद्योगों के लिए उचित माहौल मिलेगा तब उद्योगपति भी इस तरफ झुकेंगे. हाल ही का उदाहरण है ...टाटा की नेनो फेक्टरी. बंगाल में सरकार ने साथ नहीं दिया... नखरे दिखाए... लाल पताका जिंदाबाद हुआ. टाटा दुखी हो गए . मौका पाते ही गुजरात से मोदी ने हाथ बढ़ाया. संपर्क साधा ...ताल मेल बैठाकर सुविधाएँ मुहैया कराईँ और साल भर में नेनों गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी. टाटा का भी नाम हुआ और मोदी का भी. ऐसे रवैये की वजह से ही गुजरात फल फूल रहा है. वहाँ के व्यापार व उद्योग दिन दूनी व रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं. इतना कि आज मोदी को देश में प्रधानमंत्री पद के सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के रूप में आँका जा रहा है.

 बंदरगाह, सड़क, पानी एवं इलेक्ट्रानिक सुविधाओं के साथ गुजरात को मोदी ने इतना उपयुक्त बना दिया है कि सारे उद्योगपति , ( देश के ही नहीं परदेशों के भी) उनकी तरफ नजर गड़ाए खड़े हैं कब मौका मिले और कब कारखाना खोला जाए. अभी सुजुकी भी मारुती से संबंध छोड़कर गुजरात में कारखाना खोलने की सोच रही है ... ऐसा क्यों ...

 इस बात पर चर्चा होनी चाहिए और अच्छाईयाँ पूरे देश में अपनाए जाने चाहिए. उद्योगपतियों को उचित सुविधा मुहैया कराई जानी चाहिए एवं इनके बदले उन्हें सामाजिक जिम्मेदारियों से अवगत कराना चाहिए. हमारे यहां दूसरी समस्या यह है कि सामाजिक व राष्ट्रीय किसी का नहीं होता, न ही इसकी जिम्मेदारी किसी की होती है. आप जितना चाहे सरकारी दोहन कर लो , अधिकारी खुश हैं तो सब दबा रह जाएगा..  

 जब देश में सारे नेताओं को जनता का ही भला करना है तब चुने गए प्रतिनिधि अपनी पार्टी से परे आकर – जनता की भलाई के कार्यक्रम का मसौदा तैयार क्यों नहीं करते और उन पर तौर तरीकों से अमल क्यों नहीं करतो... केवल इसलिए कि जनता की सेवा का बात महज दिखावा है. सेवा तो सब खुदकी करना चाहते हैं.

 अब बहुत देर हो चुकी है. जनसंख्या पर नियंत्रण तो हो नहीं पा रहा है. बेरोजगारी पर नियंत्रण करना मुनासिब नहीं समझते. फलतः मँहगाई बढ़ रही है. य़दि और देर की गई तो शायद हालातत काबू से बाहर हो जाएंगे.

लक्ष्मीरंगम.

बुधवार, 12 मार्च 2014

आरक्षण - क्रियान्वयन...

आरक्षण - क्रियान्वयन...

आजादी के तुरंत बाद महात्मा गाँधी ने प्रस्ताव रखा था कि इंडियन नेशनल काँग्रेस – जिसका गठन देश की स्वतंत्रता संग्राम के लिए किया गया था – का उद्देश्य अब पूरा हो चुका है इसलिए इसे भंग कर दिया जाए. लेकिन काँग्रेस के दूसरी पंक्ति के नेताओं को यह रास नहीं आया, शायद उन्हें कांग्रेस की साख का फायदा उठाना था. वही काँग्रेस गाँधी जी के न चाहने के बाद भी आज तक चल रही है...

पता नहीं गाँधी जी के मन में क्या विचार थे, पर आज जरूर लगता है कि उनकी विचार धारा सही थी. काँग्रेस को उसी वक्त भंग कर दिया गया होता तो शायद स्थिति अलग होती. शायद वंशवाद की यह प्रवृत्ति पनप नहीं पाती.

कांग्रेस के बने रहने से गाँधी समर्थक नेहरू जी का कद बढ़ गया और उनके परिवार ने तो करीब करीब कब्जा ही कर लिया. आज तक कांग्रेस में कई अच्छे नेता हुए पर किसी को कोई ओहदा नहीं दिया गया. मुझे तो ऐसा लग रहा है कि जहाँ लगा कद बढ़ रहा है, तो उसे राष्ट्रपति भी बनाया - लेकिन प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया. एक बेचारे शास्त्री जी बने, पर ज्यादा समय कुर्सी पर रह नहीं पाए. हाँ नरसिंहाराव बच निकले.

इधर गाँधी जी की नीतियाँ धीरे-धीरे कमजोर पड़ती गईं और गाँधी परिवार की नीतियाँ उन पर हावी होती गईं. बुरा तो लगता है किंतु यथार्थ तो यही है कि आज गाँधी जी के नाम का प्रयोग केवल वोट बटोरने के लिए किया जाता है. उनके सिद्धांत तो लोग कब का भूल चुके हैं.

गाँधी जी ने हरिजन शब्द से संबोधित कर अनुपयुक्त जाति सूचक नामों को अलग किया. उन्हें मुख्य धारा में लाने का यह गाँधी जी का प्रथम प्रयास था.. उनका प्रिय भजन था – वैष्णव जन तो तेने कहिए जो पीर पराई जाने रे...हरिजन व वैष्णव में शाब्दिक तौर पर कोई फर्क नहीं है. हरि का मतलब ही विष्णु है.

बाद में तो गाँधी जी नहीं रहे और नेहरू जी का राज चल पड़ा. पहले पहल हरिजनों को मुख्य धारा में लाने के लिए उन्हें अनुसूचित किया गया. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति बनीं. यानि कि घर में इनको अलग कमरा दे दिया गया. सबसे पहले – अनुसूचित जाति व जनजाति में दर्ज जातियों के प्रति दृष्टि बदली और कुछ नहीं हुआ. पहले भी इन्हें पूरी तरह छूट नहीं थी और वे पिछड़े थे इसलिए उनकी तरफ से भी कोई प्रतिक्रिया नहीं हो सकी. कुछ बरसों में ही नेताओं ने इसे वोट बैंक बना दिया. इसके लिए लुभावने सपने दिखाने लगे. केवल सपने... और वे उसके चंगुल में फँस कर अपना वोट देते रहे. पर मिला कुछ भी नहीं.

फिर एक नया हथियार खोजा गया – आरक्षण. आरक्षण देश के पिछड़ेवर्ग को मुख्य धारा में लाने का एक प्रयास था. लेकिन जिस तरह से इसे क्रियान्वित किया गया या जा रहा है- इससे 50-60 वर्षों बाद भी पिछड़ा वर्ग पिछड़ा ही है.क्योंकि सुविधाएं सही जगह तक पहुँच ही नहीं पा रही हैं.जिन्हें सुविधाएं मिलने लगीं उनकी सुविधाएं मिलती ही रहीं और नए लोग शामिल हो गए. पिछड़ा वर्ग बढ़ता गया. संपन्नता के बाद भी वह पिछड़े वर्ग से पृथक नहीं हुआ. सो अन्य लोंगों की सुविधाएं कम होती गईं. पिछड़ा वर्ग भी बढ़ा – सामाजिक पिछड़ा वर्ग बढ़ा नई जातियाँ शामिल की गई. अब आर्थिक पिछड़ा वर्ग , अल्पसंख्यक पिछड़ा वर्ग,सैनिक, रिटायर्ड सैनिक व उनके आश्रित जुड़े. श्त्रियों को आरक्षण में जोड़ा गया. कूल दाखिला से लेकर नौकरी में रिटायरमेंट तक इन्हें सुविधा उपलब्ध कराई गई और बदले में गुणवत्ता से समझौता किया गया. सब हुआ राजनीतिक लाभ के लिए... या कहिए वोटों की राजनीति के लिए. अब सारे आरक्षण के आंकड़ों के अवलोकन से पता चलेगा कि वास्तव में अब सामान्य जनता ही अल्पसंख्यक हो गई है. यदि अब भी ख्याल नहीं किया गया तो उनकी हालत दयनीय से बदतर होने लगेगी.

अनुसूचित जातियों और जनजातियों को शिक्षा और नौकरी के लिए आरक्षण दिया गया. शायद यह 7.5 प्रतिशत से शुरु हुआ था. इससे अनुसूचितों को पढ़ने एवं कमाने की कुछ सुविधा मिली. कुछ ने तो इसका सही इस्तेमाल किया और आगे बढ़े ताकि अगले पीढ़ी को आरक्षण की जरूरत नहीं पड़े. पर ज्यादातर लोगों ने सुविधाओं का उपभोग ही किया और अपने स्तर को वहीं का वहीं रहने दिया. स्कूल में इनकी फीस माफ की गई, ग्रंथालय की पूरी सहायता उपलब्ध कराई गई. जब औरों के लिए केवल दो पुस्तकें सप्ताह भर के लिए मिलती थीं तो इनको तीन पुस्तकें 15 दिनों के लिए मिलती थी और बाकी वर्ष भर के लिए पाठ्य पुस्तक शाला से ही मुफ्त मिल जाया करते थे. यह एक बहुत अच्छा कदम था. पढ़ने के लिए मूलभूत सुविधा उपलब्ध कराना.

इससे ये पढ़ाई में उभरने लगे. लेकिन ज्यादातरों ने इसका सही उपयोग नहीं किया और पढ़ाई में ध्यान ही नहीं दिया. उसी कक्षा में पड़े रहते , फीस तो माफ है ही, दिन भर घूमते फिरते शाम घर पहुँच जाते . घर वाले सोच रहे होंगे बच्चे पढ़ रहे हैं.

जब बच्चों के पास होने के लाले पड़ते तो अभिभावक या बच्चे शिक्षकों से गुजारिश करते और शिक्षक कुछ कर करा कर या ग्रेस मार्क देकर पास करवा देते. हालाँकि शिक्षकों के मन में बच्चों की भलाई ही थी पर इस आदत ने बच्चों को न पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया. क्योंकि इसके बिना भी पास होने का जरिया मिल गया था. कुछ समय बाद यह तो प्रणाली में ही आ गया. अनुसूचितों को पास होने के लिए 30 प्रतिशत अंक पाने होते थे और औरों को 33 या 35 प्रतिशत.

यहां से शुरु हुई सामान्य और अनुसूचितों के बीच एक खाई जिसमें गुणवत्ता का फर्क डाला गया. यह खाई बढ़ती ही गई और आज भी बढ़ रही है. नौकरी के लिए आवेदन में भी अनुसूचितों को फीस कम देनी पड़ती है, अंक कम पाने पड़ते हैं और इन सब के साथ उनके लिए आरक्षण हैं. जहाँ औरों को न दिया जाता हो वहाँ भी अनुसूचितों को लिखित व मौखिक  परीक्षा केंद्रों में आने के लिए यात्रा खर्च दिया जाता है.

किसी को सुविधा मिले इससे अच्छा क्या हो सकता है. लेकिन यदि उन सुविधाओं का गलत प्रयोग किया जा रहा है और उस पर ध्यान न दिया जाए यह तो ठीक नहीं है. सुविधा सही व्य़क्ति तक पहुँचनी चाहिए.

यदि मेरी जानकारी सही है तो एक समय ऐसा भी था जब नौकरी के लिए मेरिट सूची में अनुसूचितों के स्थान निश्चित किए गए थे. जैसे 1,4,11 इत्यादि. इस स्थान पर किसी भी हालत में सामान्य व्यक्ति का नाम हो नहीं सकता था. लेकिन इनके अलावा अन्य स्थानों पर अनुसूचितों का नाम हो सकता था. फलस्वरूप अनुसूचितों को निश्चित से ज्यादा जगह मिलने लगी. आरक्षण का प्रतिशत बढ़ने लगा जब कि कागजों पर तयशुदा प्रतिशत में कोई फर्क नहीं किया गया था.

अब कई अनुसूचित सामान्य से ज्यादा संपनन है, फिर भी उन्हें इसका लाभ मिल रहा है और जो समान्य असम्पन्न हैं उन्हें इस लाभ से वंचित किया गया है. कुल मिलाकर यह जातिगत राजनीति का रूप ले रही है.

किसान देश के अन्न दाता है. बहुत से किसान गरीब हैं. उन्हें भी यह सुविधा दी जाती है. यहाँ शायद जाति वाद नहीं है. लेकिन किसान की सम्पन्नता से इसका कोई लेनादेना नहीं है. एकड़ों जमीन होने के बाद भी किसान परिवारों को यह सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है. इसकी वजह से लोग आज जाति के आधार पर अपने आपको अनुसूची में जोड़ना चाहते हैं. हास्यास्पद हो सकता है लेकिन सवर्ण बच्चे अनुसूची के बच्चों से शादी करने के लिए तैयार हो रहे हैं ताकि उन्हें भी आरक्षण का लाभ मिले. वैसे आज के युग में आरक्षण के अलावा जाति बंधन लगभग खत्म हो चुका है. जो बहुत अच्छा है.

इधर सुविधाओं कारण साधारणतः अनुसूचितों की पढ़ाई या नौकरी में साख कम बन पाई. ऐसा नहीं है कि अनुसूचितों मे विलक्षणता नहीं है पर ऐसे कम है. पढ़ाई का स्तर गिरा है तो नौकरी –पेशे में निपुणता पर इसका असर तो दिखेगा --- वही हुआ.

जो तकलीफदायक है वह यह कि देश में इन आरक्षणों का जिस तरह से क्रियान्वयन हुआ , उससे जरूरत मंदो को तो कम व अपनों को ज्यादा लाभ पहुँचाया गया. जरूरतमंद आज भी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं. देश में जनसंख्या बढ़ी है तो जायज है जरूरतमंद भी बढ़े होंगे. लेकिन पुराने लोग जो फायदा उठाकर संपन्न हो गए हैं उन्हें तो इस सुविधा से किनारे करना चाहिए और उनकी जगह नए लोगों को फायदा देना चाहिए. जो सुविधा पा रहे हैं वे पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ उठाएं और अन्यलोग वंचित रह जाएं यह सही नहीं है.

इनके अलावा अल्पसंख्यक, इकोनोमिकली बेकवार्ड कास्ट, सैनिक सेवारत या रिटायर्ड व उनके आश्रित और एक नया वर्ग अब आरक्षण पाने का हकदार है ... स्त्री. चाहे कैसे भी हो यानि गरीब, अनुसूचित या फिर सामान्य. मैं कतई नहीं कह रहा हूँ कि, किसी वर्ग को आरक्षण से वंचित किया जाए, पर किसी भी हाल में गुणवत्ता से समझौता न किया जाए.कुल मिलाकर आरक्षण इतना हो गया है कि सामान्य वर्ग अब शिक्षा या नौकरी के विचार छोड़ दे तो अच्छा है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि वे इतने धनाढ्य भी तो नहीं कि अपने बच्चों को व्यापार में लगा दें. तो वे करें क्या. यह एक बहुत बड़ा सवाल बनकर उभर रहा है. आश्चर्य नहीं कि सामान्य परिवारों के बच्चे निराश होकर भटक जाएं.

इसके अलावा एक और मुसीबत आ गई है कि सरकार किसी न किसी बहाने रिटायरमेंट की आयु बढ़ाते जा रही है. कभी यह 55 वर्ष हुआ करता था . फिर 58 हुआ, 60 हुआ . अब 62 – 65की बातें चॉल रही हैं . य़दि ऐसा ही चलती रहा तो नवयुवकों को नौकरी कहाँ से मिलेगी...

लेकिन समाज की तो यह जिम्मेदारी है कि ऐसा न होने दें. जिसका हम सब ही हिस्सा हैं. इसके लिए जरूरी है कि इस आरक्षण को सही ढंग से क्रियान्वित करने के लिए उचित कदम उठाए जाएं.

पहला यह कि हर संभव सहयाता कर हर पिछड़े वर्ग के व्यक्ति को मुख्य धारा में जोड़ा जाए. किंतु गुणवत्ता पर लेश मात्र भी समझौता न किया जाए. दूसरा आरक्षण के हकदारों को आरक्षण व उससे जुड़ी सुविधाएं मिलें पर सब सुविधाओं में से, जिस स्कीम में सबसे ज्यादा सुविधाएं लें और बाकी से परहेज करें. चाहे अनुसूचितों का लाभ लें या फिर कृषक होने का लाभ लें, या फिर असंपन्न् वर्ग में होने का लाभ लें. चाहे स्त्री हो या पुरुष – किसी एक प्रणाली के तहत, जो उन्हें सुविधाजनक हो, जिसमें सबसे ज्यादा सुविधा मिल रही हो – लाभ लें. साराँशतः यह कहा जा रहा है कि हर एक व्यक्ति, जो उसे अच्छा लगे केवल उस एक स्कीम का ही फायदा ले औऱ सरकार को भी चाहिए कि इस पर विचारे और अमल करे ताकि ज्यादा लोगों तक प्रणालियों का लाभ पहुँचाया जा सके और संपन्न् लोग चाहे वे किसी भी वर्ग विशेष में आते हों सुविधा के हकदार न हों.

मैं यहाँ आरक्षण प्रतिशत की अंकतालिका में जाना नहीं चाहूंगा , पर यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि यदि आरक्षण प्रणाली का समुचित क्रियान्वयन नहीं हुआ तो वो दिन दूर नहीं जब आज के सामान्य वर्ग के सारे परिवार अपना एक वर्ग बनाकर आरक्षण माँगने लगेंगे.
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लक्ष्मीरंगम.

मंगलवार, 11 मार्च 2014

एक और प्रतिज्ञा.....

एक और प्रतिज्ञा.....

भारत, स्वतंत्र होने से शुरु होकर आज तक स्वतंत्रता दिवस मना रहा है. यह प्रति वर्ष भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष व बलिदान की याद दिलाता है और भारतवासियों से देश को समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है. उसी तरह सन् 1950 से भारत में गणतंत्र दिवस मनाना शुरु किया गया. इसी साल 26 जनवरी को भारत सर्व प्रभुत्व संपन्न् लोकतंत्रात्मक गणराज्य घोषित किया गया. इसके अलावा तीसरा दिवस मनाया जाने लगा 2 अक्टोबर... गाँधी जी का जन्म दिन – देश की स्वतंत्रता में उनके योगदान को समर्पित. फिर बारी आई 14 अप्रेल .. अंबेडकर जयंति, 5 सितंबर – शिक्षक दिवस और 14 नवंबर – बाल दिवस. खासतौर पर ये दिवस देश के विशिष्ट नेता ( व्यक्ति के जन्म दिन पर उनकी विशिष्टता के उपलक्ष में मनाए जाने लगे.

तब केवल इतने ही दिवस मनाए जाते थे. फिर आया शहीद दिवस...30 जनवरी – गाँधी जी की वर्धंति... देश के स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को समर्पित.

उसके बाद न जाने कब कब और कौन कौन से दिन आ गए अब तो याद भी नहीं. शायद 30-40 % हमें पता भी न हो. सुरक्षा दिवस, हिंदी दिवस, सद्भावना दिवस, कौमी एकता दिवस, वोलेंटाईन डे, विजिलेंस डे, और न जाने कितने हैं.

एर दूसरा सिरा प्रारंभ हुआ.. सिस्टर्स डे, ब्रदर्स डे, मदर्स डे, फादर्स डे, गर्ल चाइल्ड डे, लिटेरेसी डे, फ्रेंडशिप डे, पितृदिवस, माता दिवस और अभी मानाया वुमेंस डे,

बात हुई कि साल में हम कितने दिवस मनाते हैं. और उन पर कितनी श्रद्धा रखते है. पहले तो कोई दिवस नहीं मनाया जाता था पर हर कोई दूसरे की इज्जत करता था , सभी एक दूसरे के सहायक होते थे. बड़ों को आदर मिलता था ( बिना माँगे).  माता – पिता- गुरुजनों के प्रति श्रद्धा भाव अपार था. पर आज हमारी संस्कृति इतनी भयानक हो गई है कि अब हमें इन सब दिनों को हर साल मनाकर याद दिलाना पड़ता है कि यह भी हमारी जरूरत है.

और तो और अब तो हर दिन पर प्रतिज्ञा करने का रिवाज चल पड़ा है. चाहे सद्भावना दिवस हो या सुरक्षा दिवस. शायद किसी दिन हमें अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने की कसम खानी पड़े. यह दिन न देखने मिले तो सौभाग्य होगा.

भारतवासी अब फार्मालिटीस में विश्वास करने लगे हैं. प्रतिज्ञा दिलवा दी ...मेरा काम पूरा.. अब साल भर कोई क्या करता है यह जिम्मेदारी मेरी नहीं है. इसलिए साल भर कोई याद भी नहीं करता कि कोई कसम खाई है या शपथ ली है.

ऐसे कई दिवस और कई प्रतिज्ञाएं हैं, जिसमें से बहुत तो मैं जानता भी नहीं और जो कुछ जानता हूँ तो उनका यहां जिक्र करने की जरूरत नहीं समझता.

मैंने अपना अभिप्राय जाहिर कर दिया है ... समझने के लिए इतना काफी है.. जो न समझना चाहे उसके लिए कुछ भी करना फायदेमंद नहीं होगा.

ऐसी प्रतिज्ञाओं से परेशान होकर एक दिन मैंने कहा भी था...

साल भर हम सो रहे थे, एक दिन के वास्ते ,
जागते ही ली जम्हाई , और फिर हम सो गए..

हम प्रतिज्ञा करने के बाद कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर आने के पहले ही भूल चुके होते हैं कि किस बात की प्रतिज्ञा ली थी...

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लक्ष्मीरंगम.


सोमवार, 10 मार्च 2014

ई- सुविधा.

ई - सुविधा

कल मैंनें बैंक में रुपए लेने के लिए चेक दिया. पता लगा लिंक फेल है. कब आएगा कोई पता नहीं है. सारे बैंक में लोगों की भीड़ लगी है और सबको एक ही इंतजार है. लिंक कब आएगा.

सोचा यह क्या तमाशा है ... जब नेट बैंकिंग नहीं था, तब भी तो बैंक चलते थे. तो अब क्यों बंद हो गया है. अच्छा है कि हम तकनीकी तौर पर काफी आगे बढ़ गए हैं. अब तकनीकी के बिना काम हो ही नहीं पाता. शायद यही सोच हमें आलसी बना जाती है. जितना काम पहले बिना नेट बैंकिंग के होता था, वह भी आज नहीं हो पाता – यदि लिंक फेल हो गया हो तो. हम तकनीकी तकलीफ को झेल जाते हैं.

ऐसी ही मुसीबत है रेल्वे स्टेशनों पर आरक्षित टिकट बुक करने में. – लिंक फेल हो गया तो कीजिए इंतजार - जब तक न आए – कब आएगा भगवान ही जानता होगा. इस बीच, और जगह जहाँ लिंक ठीक है, वहाँ से टिकट बुक हो रहे होंगे. जब यहाँ लिंक आएगा, तब केवल वेइटिंग लिस्ट टिकट ही मिलेंगे. इसकी वजह से जो तकलीफ हुई, जो नुकसान हुआ उसका जिम्मेदार कौन. कोई शादी में नहीं पहुँच पाया तो कोई मातम में नहीं पहुँच पाया. किसी की फ्लाईट छूट गई, तो किसी का इंटर्व्यू छूट गया. किसी को कुछ नहीं पड़ी है. इस पर कोई पी आई एल लगाकर देखना पड़ेगा कि न्यायालय क्या कहना चाहेगा.

बैंक में भी अपने बैंक खाते से पैसे देने में क्या संकोच है. एंट्री तो बाद में भी की जा सकती है. दूसरे बैंक से संबंध टूट गया है पर अपने बैंक के सारे हिसाब तो अपने ही पास हैं. बैंक ट्राँसफर के भी आवेदन ले सकते हैं और ट्रांसफर भी बाद में किया जा सकता है. लेकिन कौन करेगा. बढ़िया आराम से बैठो, जब लिंक आएगा तब तक. यदि आवेदन रख लिया जाए तो ग्राहकों को फिर बैंक आने की जरूरत नहीं पड़ेगी. कई ग्राहक ऐसे होंगे जो दूर से आ रहे हैं और फिर नहीं  सकते या किसी काम की वजह से बाहर जाना चाहते हैं. उनके लिए कम से कम सुविधा तो दी ही जा सकती है. लेकिन सुविधाओं ने हमें उनका गुलाम बना लिया है या यों कहिए कि हम सुविधाओं के गुलाम हो गए हैं. सुविधा एक बार मिल गई तो बिना सुविधा के किया जाने वाला काम तो होगा ही नहीं. सुविधा दीजिए फिर काम की बात कीजिए. यही समस्याएं है, जहाँ कहीं भी इलेक्ट्रॉनिक   सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं.


हमारे कार्यालय में भी ऐसा ही हुआ. अग्निशमन के पानी के लिए एंजिन, डीजल से चलता है. उसकी टंकी में 200 लीटर डीजल भरा जा सकता है. ज्यादा देर चलने पर टंकी में डीजल भरते रहना पड़ता है. इसके बार बार के झंझट से मुक्ति पाने के लिए  ऑटोमेशन किया गया. यानी डीजल कम होने पर पंप अपने आप चलकर टंकी में डीजल भर देता है और भरने पर अपने आप बंद हो जाता है. अब मजदूरों को तेल भरने की जरूरत नहीं है.

एक बार अग्निशमन ट्रायल के समय पानी बंद हो गया. सबकी किरकिरी हो गई. जाँच से पता लगा कि फायर फायटिंग एंजिन के टंकी में डीजल नहीं है. कारण बहुत देर से बिजली नहीं है और बैटरी डिस्टार्ज हो गई है. इसलिए ऑटोमेशन का सोलेनॉइड वाल्व काम नहीं किया. फलस्वरूप डीजल नहीं भर पाया. फिर बात आई कि फिर मजदूरों से क्यों नहीं भरवाया गया. तब कहीं जाकर पता चला कि ऑटोमेशन के दौरान मजदूरों से तेल भरने की सुविधा खत्म कर दी गई है.

पहले जब मोटर सायकिल या कार नहीं होती थी तब कितने किलोमीटर पैदल चले जाते थे. सायकिल आई तो चलना कम हो गया और बिन सयकिल के अब ज्यादा चला नहीं जाता. बाद में मोटर सायकिल आई तो बिना मोटर सायकिल के अब ज्यादा दूर जाया नही जाता. अब कार आ गई है तो दो चार किलोमीटर से ज्यादा जाना हो तो कार चाहिए. कार में प्रोब्लेम है तो ठीक होने पर जाएंगे. अन्यथा टेक्सी कर लेंगे पर मोटर सायकिल या सायकिल से जाना संभव नहीं होता.

हुई ना वही बात कि वाशिंग मशीन आने से पहले कपड़े हाथ से बाथरूम में धुल जाया करते थे. अब वाशिंग मशीन आ गई है सो हाथ से कपड़े धोने की जरूरत नहीं होती. अच्छा है आराम से काम हो जाता हैं. लेकिन जब बिजली बंद हो जाए या वाशिंग मशीन में कोई खराबी आ जाए तो, हाथ से कपड़े नहीं धुल सकते . अब बिजली आने पर ही कपड़े धुलेंगे या कपड़े लाँड्री से धुल कर आएँगे.

बंग भाषा के वर्णाक्षरों के सूत्रधार डॉ. ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी के बारे सुना है कि वे पाठ पूरा करने के बाद किताब से पृष्ठ ही फाड़ दिया करते थे. पर उन्हें पुराना पाठ हमेशा के लिए याद रहता था. एक यह जमाना है कि सुविधा मिली तो पुराना तरीका बंद ही कर दिया भले मिली हुई सुविधा बंद ही हो गई हो. यानी कि चम्मच से खाना सीख लिया तो उंगलियाँ केवल चम्मच पकड़ने का काम करेंगी. चम्मच न मिलने पर भी हाथ से खाना नहीं खाया जाएगा. संभवतः चम्मच से खाना सीखने पर बाकी उंगलियाँ काट ली जाएंगी. यानि आगे पाठ  पीछे सपाट.

अब लोग बताएं ऑटोमेशन हमारे लिए वरदान है या अभिशाप...


अयंगर